जैसा की मैने आपसे पिछले सप्ताह कहा था इस स्तंभ के अंतर्गत मैं हर सप्ताह आपसे सफ़ल ब्लाग लेखन से संबंधित एक छोटी सी बात करने का प्रयास करुँगा. आज की बात फ़िर एक नये और दूसरे उपाय के साथ. लेखक और पाठक के बीच मात्र लेखन और पठन से एक अनजाना सा रिश्ता कायम हो जाता है. उसका सम्मान करो. ये रिश्ता इन्सानी रिश्तों से जुदा एक अहसास का रिश्ता होता है. इसलिए किसी लेखक विशेष से आप अधिक लगाव महसूस करने लगते हैं, यह उसके लेखन का आपके उपर प्रभाव है जो इस लगाव का अहसास कराता है. अतः लेखन ऐसा करो जिससे पाठक सीधा संबोधित हो मानो समाने बिठाकर उसे कथा सुना रहे हो और वो तुम्हारे लेखन से जुड़ सके. यही लगाव और जुड़ाव सफलता की कुँजी है.
रिश्तों की टूटन का क्या है, फिर यूं ही जुड़ जायेंगे. ये तो पर उगते ही एक दिन, पंछी बन उड़ जायेंगे. वक्त भला हो तो फिर देखो, सब अपने हो जाते हैं- दुख का साया दिखा अगर तो, राहों से मुड़ जायेंगे.
अगले सप्ताह फ़िर मिलते हैं. -समीरलाल "समीर" |
ताऊ साप्ताहिक पत्रिका के सिल्वर जुबिली विशेषांक मे आपका स्वागत है. आज लिए चलते हैं हम आप को भारत के उत्तर पूर्वी राज्य अरुणाचल प्रदेश में. अरुणाचल--अर्थ है --उगते हुए सूर्य की भूमि. -सन् १९७२ ई. तक अरुणाचल नार्थ ईस्ट फ्रोन्डियर एजेन्सी (छम्थ्।) के नाम से जाना जाता था. २०.०१.१९७२ में उसे संघ शासित क्षेत्र की मान्यता मिली.उसके बाद वह अरुणाचल प्रदेश नाम से जाना जाने लगा. २० फरवरी १९८७ म इसे राज्य के रूप में मान्यता मिली. इसकी पहली राजधानी नहरलगन थी, अब ईटानगर है.. यहाँ एक विश्वविद्यालय (राजीव गाँधी विश्वविद्यालय), एक इंजीनियरिंग कॉलेज, सात महाविद्यालय तथा ढेर सारे विद्यालय भी हैं. सियांग, कामंग आदि यहाँ की प्रमुख नदियाँ हैं.लोगों को तीन सांस्कृतिक विभागों में बाँटा गया है. महायान बौद्ध सम्प्रदाय को अपनाये मोनपास और षेरदुकपेन्स- वे तवांग तथा कामेंग जिले में बसे हैं. उनमें लामा का प्रभाव ज्यादातर दिखाई पडता है. दूसरे विभाग में सूर्य, चन्द्र आदि की पूजा करने वाली आदी, अकाव आदि जनजाति आती है. तीसरे विभाग नागालैंड के आसपास तिराज जिले में बसने वाले हैं, जो नाक्टेस व बांकोस नाम से जाने जाते हैं. अरुणाचल प्रदेश के त्योहार दो तरह के होते हैं, एक ईश्वर प्रीति के लिए और दूसरे अच्छी फसल तथा स्वतंत्रता के लिए. लगभग सभी त्योहारों में पशुबलि होती है. इसका अधिकतर भाग हिमालय से ढका है.हिमालय पर्वतमाला का पूर्वी विस्तार इसे चीन से अलग करता है. तवांग में स्थित बुमला दर्रा 2006 में 44 वर्षों मे पहली बार व्यापार के लिए खोला गया। दोनों तरफ के व्यापारियों को एक दूसरे के क्षेत्र मे प्रवेश करने की अनुमति दी गई.चीन, म्यानमार, भूटान आदि देशों की सीमा होने के कारण अरुणाचल संरक्षित क्षेत्र है. इस तरह स्वतंत्रता के बाद भी इनर लाइन परमिट की जरूरत पड़ेगी . 63% अरुणाचल वासी 19 प्रमुख जनजातियों और 85 अन्य जनजातियों से संबद्ध हैं. इनमें से अधिकांश या तो तिब्बती-बर्मी या ताई-बर्मी मूल के हैं. बाकी 35 % जनसंख्या आप्रवासियों की है.वन्य उत्पाद अर्थव्यवस्था का सबसे दूसरा सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है. अरुणाचल प्रदेश की प्राकृतिक सुन्दरता देखते ही बनती है.यहाँ orchid फूल भी पाए जाते हैं.हरी भरी घाटियाँ और यहाँ के लोक-गीत संगीत,हस्तशिल्प सभी कुछ मन लुभावना है. अरुणाचल प्रदेश में महत्वपूर्ण जगहें हैं- १-तवांग,२-परशुराम कुंड,३-भिस्माक्नगर.,४-मालिनिथन,५-अकाशिगंगा.,६-नामडाफा ,७-ईटानगर ,८-बोमडिला इस प्रदेश में १६ जिले हैं.जिनमें से एक जिले 'तवांग 'के स्थलों की तस्वीरें हमने पहेली में आप को दिखाई थीं. अभी अप्रैल महीने में ही हमारी माननीय राष्ट्रपति प्रतिभा जी वहां के दौरे पर गयीं थीं. चीन-भारत सीमा पर समुद्र स्तर से 9 हजार फुट की ऊंचाई पर अरुणाचल के ठीक पश्चिम में तवांग जिले के एक और तिब्बत है और दूसरी और भूटान.पश्चिमी कवंग जिले से इस क्षेत्र को सेला श्रंखला अलग करती है.इस क्षेत्र को तवांग नाम १७ वीं शताब्दी में 'मेरा लामा ' ने दिया था. एक और चारों तरफ हरियाली ,बर्फ से ढके पहाड़ और दूसरी तरफ शहर की आधुनिक बनावट और वहां के बाजारों में क्राफ्ट यानी हस्तशिल्प की चीजें किसी का भी मन मोह सकती हैं. दर्शनीय स्थल - 1-तवांग मठ :- -तवांग, बौद्ध धर्म के अनुयायिओं के लिए ऐतिहासिक महत्व का शहर है और अपने चार सौ साल पुराने तवांग गोम्पा के लिए प्रसिद्ध है. करीब 400 वर्ष पुराना यह मठ छठे दलाई लामा का जन्म स्थान है. तिब्बत की राजधानी ल्हासा में बने मठ के बाद यह एशिया का सबसे बड़ा मठ है. इस मठ के परिसर में 65 भवन हैं. वर्तमान दलाई लामा ने तवांग के रास्ते ही भारत में शरण ली थी. -यहां महात्मा बुद्ध की आठ मीटर ऊंची स्वर्ण प्रतिमा देखने लायक है. यहाँ के पुस्तकालय में १७ वि शताब्दी के महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी रखे हुए हैं 2-सेला झील -:तवांग से ऊपर की तरफ जाएँ तो 'सेला पास 'है जो कि समुद्र से १३,७०० फीट की ऊँचाई पर है. तवांग शहर से १७ किलोमीटर दूर यह झील पर्यटकों को स्वर्गीय आनंद की अनुभूति देती है इस लिए इसे paradise lake भी कहा जाता है.इस का नाम Pankang Teng Tso (P.T. Tso ) lake भी है.और सेला मार्ग में पड़ने के कारण कई लोग इसे सेला झील भी कहते हैं. 3-एक झील और है जिस के पास कोयला फिल्म की शूटिंग हुई थी तब से उस झील का नाम ही माधुरी झील पड़ गया है. 4-इस के अलावा संगत्सर झील,बंग्गाचंग झील भी देखने लायक हैं. 5-तवांग वार मेमोरियल:-तवांग वार मेमोरियल को १९६२ की भारत -चीन युद्ध में शहीद हुए जवानों की याद में बनाया गया है. -४० फीट ऊँचा यह स्तूप के आकार की संरचना है ,स्थानीय भाषा में इसे 'नामग्याल छोर्तन'Namgyal Chortan’ कहते हैं और इस पर २४२० शहीदों के नाम सुनहरे अक्षरों में ३२ काली granite की प्लेटों पर अंकित है.इस इमारत में दो हॉल हैं.एक में शहीदों के सामान को सुरक्षित रखा गया है.और दूसरे में प्रकाश और ध्वनि शो के ज़रिये वीर जवानों की कहानी बताई जाती है.इस स्मारक पर तिब्बतियों के धर्मगुरु दलाई लामा का आशीर्वाद है उनके द्वारा दी गयीं दो मूर्तियाँ -[एक भगवान अव्लोकिटेश्वर और दूसरी भगवान बुद्ध की ]यहाँ वार मेमोरियल के स्तूप में स्थापित हैं. कैसे जाएँ--- नजदीकी रेलवे स्टेशन-रंगपारा.[आसाम राज्य] नजदीकी हवाई अड्डा -तेजपुर [आसाम राज्य] सड़क मार्ग से-बस बमडीला से सुबह ५:३० चलती है शाम ४ बजे पहुंचती है. सभी बडे शहरों से से तवांग जाने के लिए सबसे पहले हवाई जहाज या ट्रेन से गुवाहाटी पहुंचना होगा और फिर गुवाहाटी और तेजपुर से होते हुए तवांग आ सकते हैं. तेज़पुर से तवांग जाने के लिए हेलोकोप्टर[Chopper] की सेवा भी ले सकते हैं . चलते चलते- कई स्तर पर बातचीत के बावजूद चीन ने तवांग (अरुणाचल का हिस्सा) पर अपना दावा छोड़ने का संकेत नहीं दिया है. उल्लेखनीय है कि चीन हमेशा 90 हजार वर्ग किलोमीटर वाले अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा जताता रहा है, लेकिन यह कहकर कि वह पूरा अरुणाचल प्रदेश नहीं मांग रहा, केवल इसका एक छोटा हिस्सा यानी तवांग चाहता है, भारत को अपने नजरिये से रियायत ही दे रहा है. चीन की ओर से यह तर्क भी दिया जा रहा है कि तवांग में जो मठ है, उसका ल्हासा के प्रसिद्ध मठ के बाद सबसे ज्यादा महत्व है. तवांग के मठ को ल्हासा के मठ से ही मार्गदर्शन मिलता रहा है, इसलिए तवांग भी तिब्बत के अधीन रहना चाहिए. चूंकि भारत ने तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग मान लिया है, इसलिए तवांग को भी तिब्बत का हिस्सा मानते हुए चीन को लौटाना होगा. पूर्व विदेश सचिव कनवाल सिब्बल ने कहा है कि अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र पर चीन का कोई ... 1962 में तवांग पर कब्जे के बाद चीनी सेना वहां से पीछे हट गई थी. हम भी यही कहते हैं की तवांग भारत का अभिन्न हिस्सा है. जून २००८ में एनबीटी से खास बातचीत में ,तिब्बतियों के धर्मगुरु दलाई लामा ने पहली बार कहा कि तवांग भारत का है. विदेश मंत्री भी हाल ही में यही दोहरा रहे थे की तवांग हमारे देश का अभिन्न अंग है. --फिर मिलते हैं अगली बार एक नयी जगह के विवरण के साथ--तब तक के लिए नमस्कार.- |
जहां ज्यादातर कॉलेज विद्यार्थियों के बैग किताबों, फोन, आईपॉड और लैब कोट से भरे रहते हैं, वहीं मुंबई के नंदन पांड्या के बैग में आपको कुछ और ही मिलेगा। नंदन जब भी घर से निकलते हैं, बैग में कम से कम तीन जोड़ी चप्पल रखना नहीं भूलते। इन चप्पलों को वे राह चलते ऐसे लोगों को बांटते हैं, जो कड़ी धूप में नंगे पैर सडक़ पर चलने के लिए मजबूर है। चप्पल देखते ही जरूरतमंद चेहरे पर खिलने वाली मुस्कान नंदन को इतना सुकून देती है कि यह उनके लिए सबसे बड़ा पुण्य बन जाता है। तेईस साल के नंदन मुंबई के के एक कॉलेज में इंजीनियरिंग के छात्र हैं। उनका मानना है कि जरूरतमंद लोगों की पैसे या भोजन से मदद करने के मुकाबले चप्पल देकर सहायता करना ज्यादा अच्छा है। वे कहते हैं कि पैसे और भोजन तो हर कोई देता ही है। लेकिन चप्पल जरूरतमंद लोगों के लिए सपना ही होती है। चप्पल सस्ती नहीं होती और वे उसे खरीद नहीं पाते। जब बच्चे नई चप्पल देखते हैं, तो उनके चेहरे पर इतनी खुशी झलकती है, जिसे बयां नहीं किया जा सकता। नंदन ने चप्पल बांटने का सिलसिला करीब एक साल पहले शुरू किया। वे अपने घर के नजदीक एक मंदिर में रोजाना जाते थे और वहां जरूरतमंद लोगों को बख्शीश दिया करते थे। एक दिन एक जरूरतमंद ने उन्हें पैसे की बजाय चप्पल देने को कहा। नंदन उसी वक्त सोच में पड़ गए। उसके बाद से उन्होंने हर आकार की चप्पल अपने साथ रखना शुरू किया। इस काम में नंदन के इलाके की चप्पल की दुकान भी उनकी मदद करती है। इस दुकान से उन्हें डिस्काउंट में चप्पल मिलती है। इन चप्पलों को वे अपने जेब खर्च से ही खरीदते हैं। नंदन के इस परोपकार के बारे में उनके परिवार को हाल ही पता चला है और उनके पिता तो अभी तक अपने सपूत के इस काम से अनजान हैं। नंदन का यह परोपकार का बीज अब वृक्ष बनने की तैयारी में है। जैसे ही नंदन के दोस्तों को इस बारे में पता चला, उन्होंने चप्पल-जूतों का एक बड़ा संग्रह तैयार करने की ठान ली है। उनके साथ अब मेटा-मीडिया नामक स्वयंसेवी संस्थान भी जुड़ चुका है। मेटा मीडिया के स्वयंसेवक मधुसूदन अग्रवाल ने बताया कि जैसे ही उन्हें नंदन के इस अनूठे काम का पता चला, वे उनके पास गए और उनकी सहायता की। चप्पल-जूतों के संग्रह में मदद करने के लिए मधुसूदन अग्रवाल से 09833167990 पर संपर्क किया जा सकता है या http://www.mettamedia.org/forum/topics/we-need-your-footwear वेबपेज की मदद ली जा सकती है। अगले हफ्ते फिर मिलेंगे। आपका सप्ताह शुभ हो.. |
एक बोध कथा "कांच की बरनी और दो कप चाय" जीवन मे जब सब कुछ एक साथ और जल्दी जल्दी करने की इच्छा होती है, सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है, और हमें लगने लगता है कि दिन के २४ घंटे भी कम पडते हैं. उस समय ये बोध कथा, "कांच की बरनी और दो कप चाय" हमें याद आती है. दर्शन शाश्त्र के प्रोफ़ेसर कक्षा मे आये और उन्होने छात्रों स कहा कि वो आज जीवन का एक महत्वपुर्ण पाठ पढाने वाले हैं. उहोने अपने साथ लाया गया कांच का बडा बर्तन (जार) टेबल पर रखा. और उसमे टेबल टेनिस की गेंद डालने लगे..और तब तक डालते गये जब तक कि उसमे एक भी गेंद डालने की जगह नही बच गई. अब उन्होने पूछा कि क्या यह जार पूरी तरह भर गया है? छात्रों के कहा : हां भर गया है अब और इसमे जगह नही बची है. अब प्रोफ़ेसर साहब ने उसमे छोटे छोटे कंकर डालना शुरु किया और उस बरनी को हिलाते गये और काफ़ी सारे छोटे छोटे कंकर उसमे समा गये. अब प्रेफ़ेसर साहब ने पूछा कि क्या ये बरनी अब पूरी तरह भर गई है? फ़िर छात्रों की तरफ़ से आवाज आई की हां अब पूरी तरह भर चुकी है. अब प्रोफ़ेसर साहब ने बारीक रेत उस बरनी मे भरनी शुरु की और जहां तक जगह मिली वो बारीक रेत उसमे समा गई. अब छात्रों कि अपनी नादानी पर हंसने की बारी थी. अब प्रोफ़ेसर साहब ने फ़िर पूछा - क्यों अब तो पूरी तरह से भर गई ना यह बरनी? छात्रों ने एक स्वर मे जवाब दिया : हां सर अब भरी है यह पूरी तरह तो. अब प्रोफ़ेसर साहब ने टेबल के नीचे से दो कप चाय के निकाले और उस बरनी मे ऊंडलने लगे. धीरे धीरे वो चाय भी उस बरनी की रेत के बीच की जगह मे समा गई. अब प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज मे समझाना शुरु किया. इस कांच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो....टेबल टेनिस की गेंद सबसे महत्वपुर्ण भाग अर्थात भगवान, परिवार, बच्चे, मित्र स्वास्थ्य और शौक हैं, छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी, कार बडा मकान आदि हैं और रेत का मतलब और भी जीवन की बहुत सी बेकार की बातें मनमुटाव, झगडे हैं...अब यदि तुमने कांच की बरनी मे सबसे पहले रेत भरी होती...तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नही बचती, या कंकर भर दिये होते तो गेंद नही भर पाते, रेत जरुर आ सकती थी...ठीक यही बात जीवन पर भी लागू होती है..यदि तुम छोटी छोटी बातों के पीछे पडे रहोगे और अपनी उर्जा उसमे नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये समय ही नही रहेगा. मन के सुख के लिये क्या जरुरी है? ये तुम्हें तय करना है. अपने बच्चों के साथ खेलो, बगीचे मे पानी डालो, सुबह पत्नि के साथ घूमने निकल जाओ, घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको, मेडिकल चेकअप करवाओ... टेबल टेनिस की गेंदों की फ़िकर पहले करो, वही महत्वपुर्ण है....पहले तय करो कि क्या जरुरी है? बाकी सब तो रेत है...छात्र बडे ध्यान से सुन रहे थे... एक छात्र ने अचानक पूछा - लेकिन सर, आपने यह नहि बताया कि ये चाय के दो कप क्या हैं? प्रोफ़ेसर मुसकराते हुये बोले - मैं ये सोच ही रहा था कि यह सवाल अभी तक किसी ने क्यों नही पूछा? इसका उत्तर यह है कि जीवन हमे कितना ही परिपुर्ण और संतुष्ट लगे, लेकिन अपने खास मित्रों के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये. अपने खास मित्रों और नजदीक के लोगों को यह विचार तत्काल बांट दो..मैने अभी अभी यही किया है..:) |
हरेला उत्तराखंड में मनाये जाने वाले त्यौहारों में से एक प्रमुख त्यौहार हरेला भी है। इस त्यौहार को मुख्यतया कृषि के साथ जोड़ा जाता है। हरेले को प्रतिवर्ष श्रावण मास के प्रथम दिन मनाया जाता है। इसे मनाने का विधि विधान बहुत दिलचस्प होता है। जिस दिन यह पर्व मनाया जाता है उससे 10 दिन पहले इसकी शुरूआत हो जाती है। इसके लिये सात प्रकार के अनाजों को जिसमें - जौ, गेहूं, मक्का, उड़द, सरसों, गहत और भट्ट (गहत और भट्ट पहाड़ों में होने वाली दालें हैं) के दानों को रिंगाल से बनी टोकरियों, लकड़ी से बने छोटे-छोटे बक्सों में या पत्तों से बने हुए दोनों में बोया जाता है। हरेला बोने के लिये हरेले के बर्तनों में पहले मिट्टी की एक परत बिछायी जाती है जिसके उपर सारे बीजों को मिलाकर उन्हें डाला जाता है और इसके उपर फिर मिट्टी की परत बिछाते हैं और फिर बीज डालते हैं। यह क्रम 5-7 बार अपनाया जाता है। और इसके बाद इतने ही बार इसमें पानी डाला जाता है और इन बर्तनों को मंदिर के पास रख दिया जाता है। इन्हें सूर्य की रोशनी से भी बचा के रखा जाता है। इन बर्तनों में नियमानुसार सुबह-शाम थोड़ा-थोड़ा पानी डाला जाता है। कुछ दिन के बाद ही बीजों में अंकुरण होने लगता है और फिर धीरे-धीरे ये बीज नन्हे-नन्हे पौंधों का रूप लेने लगते हैं। सूर्य की रोशनी न मिल पाने के कारण ये पौंधे पीले रंग के होते हैं। 9 दिनों में ये पौंधे काफी बड़े हो जाते हैं और 9वें दिन ही इन पौंधों को पाती (एक प्रकार का पहाड़ी पौंधा) से गोड़ा जाता है। ऐसा माना जाता है कि जिसके पौंधे जितने अच्छे होते हैं उसके घर में उस वर्ष फसल भी उतनी ही अच्छी होती है। 10 वें दिन इन पौंधों को उसी स्थान पर काटा जाता है। काटने के बाद हरेले को सबसे पहले पूरे वििध - विधान के साथ भगवान को अर्पण किया जाता है। उसके बाद परिवार का मुखिया या परिवार की मुख्य स्त्री हरेले के तिनकों को सभी परिवारजनों के पैरों से लगाती हुई सर तक लाती है और फिर सर या कान में हरेले के तिनकों को रख देती है। हरेला रखते समय आशीष के रूप में यह लाइनें कही जाती हैं - लाग हरियाव, लाग दसें, लाग बगवाल, जी रये, जागी रये, धरति जतुक चाकव है जये, अगासक तार है जये, स्यों कस तराण हो, स्याव कस बुद्धि हो, दुब जस पंगुरिये, सिल पियी भात खाये अर्थात - हरेला पर्व आपके लिये शुभ हो, जीते रहो, आप हमेशा सजग रहो, पृथ्वी के समान र्धर्यवान बनो, आकाश के समान विशाल होओ, सिंह के समान बलशाली बनो, सियार के जैसे कुशाग्र बुद्धि वाले बनो, दूब घास के समान खूब फैलो और इतने दीघायु होओ कि दंतहीन होने के कारण तुम्हे सिल में पिसा भात खाने को मिले। जो लोग उस दिन अपने परिवार के साथ नहीं होते हैं उन्हें हरेले के तिनके पोस्ट द्वारा या किसी के हाथों भिजवाये जाते हैं। कुमाऊँ में यह त्यौहार आज भी पूरे रीति-रिवाज और उत्साह के साथ मनाया जाता है। |
आईये आपको मिलवाते हैं हमारे सहायक संपादक हीरामन से. जो अति मनोरंजक टिपणियां छांट कर लाये हैं आपके लिये.
हीरु और पीरू
अरे हीरु? क्या है पीरू? अरे आज की कोई बढिया सी टिपणी सुना. अरे पीरू ये देख वोयादें वाले अंकल क्या कह रहे हैं? woyaadein said... रामप्यारी के प्रश्न का उत्तर है:
घोर कलयुग है भगवन.......क्लू में भी फोटो चिपका दी, वो भी एक नहीं दो-दो. यहाँ तो पहेली वाली फोटो ने ही तबाही मचा रखी है, अब क्लू वाली इन दो फोटो को भी झेलो...रामप्यारी आज तो तेरी खैर नहीं......
और अब आगे बता यार? आगे क्या? आज तो रामप्यारी भी समीर अंकल की भेजी हुई ड्रेस पहने इतराती घूम रही है. अच्छा? और हां ..आज तो टिपणी भी कर गई है…भगवान जाने इसका बचपन कब जायेगा? कुछ शरमाती ही नही है..जो मन मे आये बक बक करती रहती है. देखूं जरा..
मिस. रामप्यारी said...
हाय अंकल्स, आंटीज एंड दीदीज, गुड ईवनिंग .. अब मैं चुपके से बता रही हूं कि पहेली वाली जगह का संबंध हमारे वीर बहादुर सैनिकों के साथ भी है. और अब क्या बाकी रह गया ? ताऊ और अल्पना आंटी इस सिल्वर जुबिली को वीर सैनिको को समर्पित करने वाले हैं. और आपको विद्या माता की कसम है जो मेरा नाम लिया तो. अब क्या है कि मेरे पेट मे ये बात पच नही रही है और अगर आपने बता दिया कि रामप्यारी ने आपको बताया है तो मेरी पिटाई पक्की है..सो आप सोच लेना..अगले बार गलत क्ल्यु भी दे कर हिसाब बराबर कर दूंगी....और आपने अगर मेरा नाम नही लिया तो जैसे ही पता चलेगा मैं और एक क्ल्यु आपको आकर दे देती हूं. आप टेंशन मत लेना..बस मैं युं गई और फ़िर नही भी आई तो आप क्या कर लोगे मेरा? एक भी चाकलेट तो दी नही अभी तक. ---------------------------
अब यार इस रामप्यारी का हम क्या कर लेंगे? इसका तो भगवान भी कुछ नही बिगाड सकते. हां यार. देखो ना तभी तो भाटिया अंकल क्या सलाह दे रहे हैं ताऊ को? दिखा जरा?
राज भाटिय़ा said...
ताऊ यह वो जगह है जो... अरे अगर मेने बता दी तो सब को पता चल जायेगा, जरा बताओ तो Comment moderation तो चालू है ना, फ़िर ठीक, तो सुनो यह वो जगह है जहां मै कभी गया नही, जाऊगा भी नही, अरे मरना है इतनी सर्दी मै हिमालय पर जाऊ, जा कर करुगां भी क्या, मेने कोन से पाप किये है जो साधू बनू?
अब इस राम प्यारी का भी हिसाब किताब कर दो , अरे इस के हाथ पीले कर दो अल्पना आंटी से पूछ लो दुबई मै कोई भारतीया बिल्ला मिल जाये तो अच्छा है फ़िर इसे भी अल्पना आंटी के स्कुळ मे बच्चो की पिटाई करने की नोकरी मिल जायेगी. मै तो चला उस सुंदर सी झील मे तेरने अब झिल का नाम तो बता दुं, लेकिन मुझे खुद ही नही मालुम... सीता राम June 6, 2009 1:54 PM
अब हीरामन और पीटर को इजाजत दिजिये अगले सप्ताह आपसे फ़िर मुलाकात होगी
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ट्रेलर : - पढिये : श्री हिमांशु से अंतरंग बातचीत
ताऊ की अंतरंग बातचीत श्री हिमांशु से ..कुछ अंश… ताऊ : हमने सुना है कि किसी लडकी ने आपका नाम ले दिया और उसका बाप आपके घर आ धमका? हिमांशु : मैं सच में घबरा गया था ताऊजी। ताऊ : हमने सुना है कि आपको किसी लडकी ने पीट दिया था और आपकी अंगुली भी तोड दी थी? हिमांशु : अरे ताऊ जी, आपकी जासूसी करने वाली आदत नही गई. और भी बहुत कुछ अंतरंग बातें…..पहली बार..खुद ( सच्चा शरणम ) हिमांशु जी की जबानी…इंतजार की घडियां खत्म…..आते गुरुवार ११ जून को मिलिये हमारे चहेते मेहमान से. |
अब ताऊ साप्ताहिक पत्रिका का यह अंक यहीं समाप्त करने की इजाजत चाहते हैं. अगले सप्ताह फ़िर आपसे मुलाकात होगी. संपादक मंडल के सभी सदस्यों की और से आपके सहयोग के लिये आभार.
संपादक मंडल :-
मुख्य संपादक : ताऊ रामपुरिया
वरिष्ठ संपादक : समीर लाल "समीर"
विशेष संपादक : अल्पना वर्मा
संपादक (तकनीकी) : आशीष खण्डेलवाल
संपादक (प्रबंधन) : Seema Gupta
संस्कृति संपादक : विनीता यशश्वी
सहायक संपादक : मिस. रामप्यारी, बीनू फ़िरंगी एवम हीरामन
पत्रिका हर अंक की भाँती भव्य है. शहीदों की याद को ताजा करने के लिए ताऊ को ढेरों बधाई और शहीदों को श्रधांजलि. रही बात "ताऊश्री" वाली तो ताओ जी प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति यानि प्रिमेमिनिस्टर और प्रेजिडेंट एक पद का बोध है. जबकि ताऊ से एक सम्बन्ध और रिश्ते का बोध होता है. बाप से बड़ी उम्र का व्यक्ति जो बाप का भाई हो ताऊ होता है. फिर कोइ स्त्री भला ताऊ कैसे हो सकती है. बाप को "बाप श्री" कह्देने से क्या मान के लिए भी "बाप श्री" बन्ने के चांश खुला जायेंगे. वैसे तो आपकी मर्जी है.. जिस ब्लॉग पर रामप्यारी बिल्ली हो कर भी सबसे चतुर और चालाक हो सकती है उस ब्लॉग पर ताई को ताऊश्री कहने मैं भी हर्ज तो कोई हैं नहीं पर हम क्या करें हम तो यूं ही पंगे ले रहे हैं भाई मेरा मन तो मानता नहीं किसी स्त्री को ताऊ कहने का... समीर जी महताऊ बन गए.. हमें कोइ ऐतराज नहीं... पर भईया कोई स्त्री अपने आपको यह कहती हुई कैसा महसूश करेंगे की आज मैं महाताऊ बन गई .. मेरा कहना है की ताऊ शब्द एक रिश्ते, सम्बदंह का बोध करता है. किसी उपाधि का नहीं... और ताऊ पुरुष के लिए ही संबोधित किया जाता है स्त्री के लिए ताई समतुल्य रिश्ता होता है.. बस हम तो तू इतना जानते है.. रही बात या की यो ताऊ है कौन तो जो भी है बहुत ज्ञानी किस्म का बंद ... ताओ कू राम राम है, आर दिन में दस बार राम राम है.
ReplyDeleteगागर में सागर है भाई ताउजी आप की ये पत्रिका...घणी जानकारी मिलगी...आपकी पत्रिका पढ़कर पता लगता है की हम जो अपने आपको परम ज्ञानी समझे बैठे थे दर असल परम मूर्ख हैं...हम जैसों को आईना दिखाती इस पत्रिका का हम दिल से सम्मान करते हैं...
ReplyDeleteनीरज
अरे बाप रे, लेखकों की संख्या तो बढती ही जा रही है। एक साथ कोई कित्ता पढे। जरा पाठक की सेहत का भी ख्याल करिए।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आशीष जी इस पोस्ट के ज़रिये बहुत पते की बात कही है..इस और किसी का ध्यान नहीं जाता होगा..नंदन पांड्या जी को शुभकामनायें..बहुत ही अच्छा प्रयास है.
ReplyDelete-Himanshu ji ke interview ki pratiksha rahegi.bahut hi achcha likhtey hain .
Himanshu ji achcha ho---agar aap apni awaaz mein apni ek kavita bhi interview mein post karen.
बहुत ज्ञानवर्धक रहा पत्रिका का यह अंक भी.
आज की पोस्ट बहुत बढ़िया रही ताऊ।
ReplyDeleteसमीरलाल जी की बात भली लगी।
रिश्तों की टूटन का क्या है,
फिर यूं ही जुड़ जायेंगे.
ये तो पर उगते ही एक दिन,
पंछी बन उड़ जायेंगे.
वक्त भला हो तो फिर देखो,
सब अपने हो जाते हैं-
दुख का साया दिखा अगर तो,
राहों से मुड़ जायेंगे.
आशीष जी ने अरुणाचल के सुन्दर नजारे दिखलाए।
चप्पल से मुस्कान भली रही।
सीमा गुप्ता जी की बोध-कथा से बोध हुआ।
ठीक एक माह बाद हरेला आने ही वाला है।
ताऊ का आभार।
आज की पोस्ट बहुत बढ़िया रही ताऊ।
ReplyDeleteसमीरलाल जी की बात भली लगी।
रिश्तों की टूटन का क्या है,
फिर यूं ही जुड़ जायेंगे.
ये तो पर उगते ही एक दिन,
पंछी बन उड़ जायेंगे.
वक्त भला हो तो फिर देखो,
सब अपने हो जाते हैं-
दुख का साया दिखा अगर तो,
राहों से मुड़ जायेंगे.
आशीष जी ने अरुणाचल के सुन्दर नजारे दिखलाए।
चप्पल से मुस्कान भली रही।
सीमा गुप्ता जी की बोध-कथा से बोध हुआ।
ठीक एक माह बाद हरेला आने ही वाला है।
ताऊ का आभार।
हर बार की तरह विविध और रोचक पत्रिका.. आभार
ReplyDeleteहमेशा की तरह की ज्ञान वर्धक पन्ना |
ReplyDeleteभाई सभी लिंग ओर पुलिंग को हमारी तरफ़ से राम राम जी की
ReplyDeleteहर बार की तरह रोचक अंक.
ReplyDeletebahut badhia patrika hai. rochakata aur gyan se bharpur.
ReplyDeleteबडी ही रोचक और जानकारी देने वाली पत्रिका है आपकी. अरुणाचल के बारे मे इतनी जानकारी पहली बार मिली. बहुत धन्यवाद.
ReplyDeleteविविध रंगो से भ्ररपूर और शिक्षादायक. बधाई सभी को
ReplyDeleteएक जगह इतनी जानकारी? वाकई बार बार लौट के पढना पडेगा.
ReplyDeleteअल्पनाजी ने अरुणाचल की बहुत बढिया जानकारी दी. और सभी के स्तम्भ ज्ञानदायक और रोचक हैं. आभार सभी संपादकों का.
ReplyDeleteएक स्वस्थ और मिलजुलकर काम करने की परंपरा शुरु होती दिखाई दे रही है? बहुत अच्छा और गंभीर प्रयास है.
ReplyDeleteधन्यवाद.
बहुत ही बढ़िया .
ReplyDeleteताऊ जी, प्रणाम!
ReplyDeleteसाप्ताहिक पत्रिका पढ़ कर आनंद आ जाता है। लगता है जैसे मैं बचपन में पहुँच गया हूँ और मजे मजे में ज्ञान प्राप्त करने वाली कोई पत्रिका पढ़ रहा हूँ। मजे की बात यह है कि लगभग सारी जानकारियाँ नई होती हैं। पुरानी होती हैं तो भी कुछ नया जरूर होता है।
सुरुचिपूर्ण संचयन !
ReplyDeleteअहा...पत्रिका निखरती जा रही है दिन-ब-दिन।
ReplyDeleteहिमांशु जी के साक्षत्कार का बेसब्री से इंतजार है।
नंदन पांड्या की बाबत जानकारी देने के लिए आशीष भाई का आभार.
ReplyDeleteसमीर लाल जी ने तो आज बहुत ही गूढ ज्ञान की बात बताई.....और पत्रिका को सवांरने में संपादक मंडल के सभी सदस्यों की मेहनत स्पष्ट रूप से दिखाई पड रही है।
ReplyDeleteताऊ जे यो पत्रिका ने लेखक यों ही बढ़ते रहे ते तू देखियो या ता पूरा ग्रन्थ बन जावेगी..आर खुशी के बात ये है की ब्लॉग्गिंग का हर ब्लॉगर...यो ग्रन्थ ने पूरा चाटना चाहेगा...उड़नतश्तरी के बोल बचन बड़े ही शिक्षा प्रद लागे मानने ते...होर ताई..अल्पना ने अरुणाचल प्रदेश से परिचय भी खूब भायो...कदी बिहार पर भी कुछ लिखो न...हिमांशु जी की पोल जल्दी खोलो भाई...यो सच्चा शरणम् ने सारी सच्ची करतूतें हमने भी जाननी हैं....फेर मिलांगे घनी राम राम ...
ReplyDeleteआपकी पत्रिका में रचनाकारों की संख्या बढती जा रही है देख अच्छा लगा ....बधाई....!!
ReplyDeleteसीमा जी का फ़िर से काम पर लौटना आनंददायक है. समीर जी का स्वागत है. अल्पनाजी तो स्वयम एक सोफ़्ट्वएयर है ग्यान के भंडार का.और ताऊ तो ताऊ ही है.
ReplyDeleteबहुत अच्चा अंक. हर अंक में निखार आता जा रहा है. हिमांशुजी ने तो बड़े धाकड़ काम किये हैं :)
ReplyDeleteअरे वाह ..इत्ता मज़ा आया ये तो "ताऊ की विविध रँगी पत्रिका ' बन गयी है
ReplyDeleteसभी स्तँभकार अपना अपना कार्य पूरी निष्ठा से कर रहे हैँ - शीर्ष पर हैँ सारे प्राणी !
ताऊ आप महान है और आपकी पत्रिका महानी।
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