जिंदगी एक गीली सी रेत
समंदर की रेत पर
देखा है अक्सर
लुप्त हो जाते हैं
कदमों के पडे निशां
फ़िर भी ना जाने क्युं
अनजाने में अक्सर
हम नही छोडते
गीली रेत पर घरौंदे बनाना
और नहीं भूलते
अपने कदमों के निशां
रेत पर अंकित करना
शायद यही जिंदगी का चक्र है
और हम बार बार
यही करते चले जाते हैं अक्सर....
(इस रचना के दुरूस्तीकरण के लिये सुश्री सीमा गुप्ता का हार्दिक आभार!)
सुन्दर !
ReplyDeleteघुघूती बासूती
पकवान की तरह पगे हुए
ReplyDeleteपगचिन्ह होते हैं ये
जो दिखाते हैं मार्ग उसको
जो देखना चाहता है
नहीं लगती शर्म जिसको।
जय तो ताऊ जी की। शानदार कविता!
ReplyDeleteहर बार
ReplyDeleteउकेरना अपने निशान
फितरत है इन्सान की
और मिटा देना उन्हें
कुदरत की
यही जीवन है।
नीड का निर्माण फिर फिर ! बढियां कविता ताऊ !
ReplyDeleteताउ, कुछ समय से ब्लॉगिंग से दूर रहने के कारण आप सहित अपने कई पसंदीदा ब्लॉगरों की पिछली प्रविष्टियां नहीं पढ़ पाया था। फुरसत पाकर बारी-बारी से उन्हें पढ़ता हूं। आज मैंने आपके ब्लॉग की पिछली प्रविष्टियां पढ़कर महसूस किया कि यह साझे प्रयास का बेहतरीन नमूना बन गया है, जिससे पाठकों का पर्याप्त मनोरंजन व ज्ञानवर्धन हो रहा है।
ReplyDeleteसीमा गुप्ता जी की यह कविता बहुत अच्छी लगी। पिछली पोस्ट में उनकी लघुकथा और अल्पना जी, आशीष जी व आप के आलेख भी बहुत अच्छे लगे।
"हम नही छोडते
ReplyDeleteगीली रेत पर घरौंदे बनाना"
बहुत सुन्दर.
और नहीं भूलते
ReplyDeleteअपने कदमों के निशां
रेत पर अंकित करना
शायद यही जिंदगी का चक्र है
और हम बार बार
यही करते चले जाते हैं अक्सर....
" jivan chakar yhi hai jo nirantar chalta rhta hai.....bhut komal bhavo se bhri kavita or bhut sunder prstuti tau ji..."
Regards
बहुत सुंदर कविता.. ज़िंदगी का चक्र यूं ही चलता रहेगा..
ReplyDeleteऔर नहीं भूलते
ReplyDeleteअपने कदमों के निशां
रेत पर अंकित करना
शायद यही जिंदगी का चक्र है
*ताऊ जी,आप की पिछली कविता..'डाकू वाली 'एक तीखा व्यंग्य थी और अब गहरे अर्थ वाली कवितायेँ भी आप की कलम से निकल रही हैं.
बधाई !
बहुत अच्छी कविता है.
bahut hi sunder,dohrav bhi zindagi ka hissa hai.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर्!....आभार
ReplyDeleteजीवन की सच्चाई बयां करती रचना...सिद्ध हस्त रचना कार सीमा जी की शशक्त कलम को नमन.
ReplyDeleteनीरज
बहुत सुन्दर लगी यह .शुक्रिया
ReplyDeleteऔर हम बार बार
ReplyDeleteयही करते चले जाते हैं अक्सर....sachmuch..
जय सियाराम
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना .
शायद यही जिंदगी का चक्र है की हम बार-बार आपके पास चले आते है .
ताऊ जी को नमस्कार । शानदार कविता लिखी है आपने
ReplyDeleteअभी अभी अनिलकांत साहब की ब्लॉग से बहुत ही रूमानियत से भरी पोस्ट पढ़ कर आ रहा हूँ. उसके बाद ये कविता, बहुत खूबसूरत.
ReplyDeleteआभार
Bahut khub...
ReplyDeleteएक झोंके से हवा के,
ReplyDeleteलुप्त सब हो जायेगा,
स्वप्न जो तुमने सजाया,
सुप्त वो हो जायेगा।
रेत पर जो लिख रहे हो,
वो पहाड़ों पर लिखो,
जिन्दगी की इस इबारत,
को किवाड़ों पर लिखो।
फ़िर भी ना जाने क्युं
ReplyDeleteअनजाने में अक्सर
हम नही छोडते
गीली रेत पर घरौंदे बनाना
और नहीं भूलते
अपने कदमों के निशां
रेत पर अंकित करना
शायद यही जिंदगी का चक्र है
hmmm ham sab sab kuchh jaante hai, fir bhi fir fir padate hai unhi chakkaro me....!
uttam darshan
प्यारी रचना
ReplyDeleteFootprints on the sand of time!
ReplyDeleteताऊ,
ReplyDeleteबहुत ही गंभीर बात कह गए आप, इतनी छोटी सी रचना में, बाबा कबीर याद आ गए -
कबीरा गरब न कीजिये ऊंचे देख आवास
सांझ भये भुई लोटना ता जम आवे घास.
बहुत sanjeeda रचना. इंसान की फितरत ही ऐसी होती है ............
ReplyDelete"हम नही छोडते
गीली रेत पर घरौंदे बनाना"
बहुत सुन्दर.
बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteham aadami hai hamara yahi kam hai ki ham sapno aur ret par gar banane ki soachen kyun ki jab ye mahal tutega tab hame ehsas hoga ki ham aadmi hai
ReplyDeleteham aadami hai hamara yahi kam hai ki ham sapno aur ret par gar banane ki soachen kyun ki jab ye mahal tutega tab hame ehsas hoga ki ham aadmi hai
ReplyDeleteham aadami hai hamara yahi kam hai ki ham sapno aur ret par gar banane ki soachen kyun ki jab ye mahal tutega tab hame ehsas hoga ki ham aadmi hai
ReplyDeleteham aadami hai hamara yahi kam hai ki ham sapno aur ret par gar banane ki soachen kyun ki jab ye mahal tutega tab hame ehsas hoga ki ham aadmi hai
ReplyDeleteबचपन मे एक कविता पढ़ी थी-- नीड का निर्माण फ़िर फ़िर नेह का अह्वान फ़िर फ़िर किनकी थी याद नही है आज आपकी यह कविता पढकर मुझे पुरानी पंक्तियां याद आ गयी । आभार सुन्दर रचना के लिये ।
ReplyDeleteऔर नहीं भूलते
ReplyDeleteअपने कदमों के निशां
रेत पर अंकित करना
शायद यही जिंदगी का चक्र है
और हम बार बार
यही करते चले जाते हैं अक्सर....
वाह वाह क्या बात है
आभार सुश्री सीमा गुप्ता जी.
ओर ताऊ जी आप का धन्यवाद इसे हम तक पहुचाने का
@यही करते चले जाते हैं अक्सर....
ReplyDeleteबढियां कविता ताऊ !बधाई !
हे प्रभु यह तेरा-पथ
सुंदर शब्दों में सुंदर अभिव्यक्ति है...
ReplyDeleteरेत और जिन्दगी शाश्वत सत्य है और क़दमों के निशान गंभीर रचना ....बधाई
ReplyDeleteफ़िर भी ना जाने क्युं
ReplyDeleteअनजाने में अक्सर
हम नही छोडते
गीली रेत पर घरौंदे बनाना
Ati sundar, vicharottejak aur sochon ko jhakjhornewala, dhanyawad .
फ़िर भी ना जाने क्युं
ReplyDeleteअनजाने में अक्सर
हम नही छोडते
गीली रेत पर घरौंदे बनाना....
Ati sundar, vicharottejak aur sochon ko jhakjhornewala, dhanyawad .