जैसा कि आप पहले पढ चुके हैं कि ताऊ की शोले फ़िल्म बनना रुक गयी तो गब्बर और सांभा वहां से भाग कर वापस जंगल की और पलायन कर गये थे. रास्ते मे गांव के बच्चों ने सांभा को पत्थर मार दिये थे तो सांभा तुतलाने लग गया था. गब्बर ने उसका इलाज जैसे तैसे करवाया और सांभा ठीक होगया.
गब्बर और सांभा की डकैती का धंधा फ़िल्म मे काम करने की वजह से छुट गया था. पूरा गिरोह बिखर गया था. वापस आकर दोनों ने जैसे तैसे अपना गिरोह वापस संगठित किया और इन दोनो की मेहनत रंग लाई. दोनो ने अपना डकैती का धंधा वापस जमा लिया. अब ५० कोस तो क्या ५०० कोस तक बच्चे बूढ्ढे जावान सब इन दोनों के नाम से डरने लगे थे. दिन दूनी रात चोगुनी उन्नति करते जारहे थे.
साल २००९ बीतने को है. गब्बर और सांभा बैठे हैं. गब्बर को गजल सुनाने का बडा शौक हैं. अब ऐसे शातिर डाकुओं के पास गजल सुनने कौन आये? और गब्बर को सनक सवार की वो तो गजल सुनायेगा और गजल सुनायेगा तो कोई दाद खुजली देने वाला भी चाहिये. अचानक गब्बर बोल उठा.
गब्बर - अरे ओ सांभा..
सांभा - हां बोलो सरदार..
अरे सांभा...ले एक गजल अभी अभी दिमाग मे ताजा ताजा पकी है जरा सुन..
सांभा - उस्ताद ..मेरे को बहुत काम पडे हैं..मुझे समय नही है इन फ़ालतू के कामो के लिये. अभी वो नगर सेठ के यहां से लूट के लाये हुये गहने भी रस्ते लगाने हैं कि नही?
बस सांभा का इतना कहना था कि गब्बर ने पिस्तौल निकाल ली और चिल्ला कर बोला - सांभा ..सुनता है मेरी गजल या दबाऊं घोडा?
सांभा - उस्ताद, तुम कुछ भी करलो...मुझे गजल सुनने का समय नही है.....दबा ही डालो आज तुम्हारी लिबलिबी....
गब्बर - सांभा....जबान मत लडाओ...मेरे पेट मे गजल फ़डफ़डा रही है....
सांभा - उस्ताद, आज एक शर्त पर ही तुम्हारी गजल सुन सकता हूं ...
गब्बर - सांभा जल्दी बोल..मुझे तेरी सब शर्त मंजूर हैं...
सांभा - उस्ताद बदले में तुमको मेरी भी एक गजल सुनने पडेगी..
गब्बर - सांभा एक क्या तू बदले मे दो गजल सुना देना...चल अब सुन..
(सांभा मन ही मन बोलता है कि अगर मुझे गजल ही आती तो सुना सुना के तुमको पका नही डालता अभी तक...जैसे तुम मुझे पकाते हो. खैर आज तो तुमको भी बदले मे पकाये बिना नही छोडूंगा.)
सांभा - अच्छा उस्ताद..सुनावो गजल..मैं तैयार हुं...
अब गब्बर गजल सुनाना शुरु करता है...और सांभा दाद खुजली सब देता जा रहा है....
वो देखो कौन बैठा, किस्मतों को बांचता है
उसे कैसे बतायें, उसका घर भी कांच का है.
नहीं यूँ देखकर मचलो, चमक ये चांद तारों सी
जरा सा तुम संभलना, शोला इक ये आंच का है.
वो मेरा रहनुमा था, उसको मैने अपना जाना था,
बचा दी शह तो बेशक, शक मगर अब मात का है.
पता है ऐब कितने हैं, हमारी ही सियासत में
मगर कब कौन अपना ही गिरेबां झांकता है.
यूँ सहमा सा खड़ा था, कौन डरके सामने मेरे
जरा सा गौर से देखा, तो चेहरा आपका है.
चलो कुछ फैसला लेलें, अमन की फिर बहाली का
वो मेरे साथ न आये, जो डर से कांपता है.
थमाई डोर जिसको थी, अमन की और हिफाजत की
उसी को देखिये, वो देश को यूँ बांटता है.
दिखे है आसमां इक सा, इधर से उस किनारे तक
न जाने किस तरह वो अपनी सरहद नापता है.
कफ़न है आसुओं का और शहीदों की मज़ारें है
बचे है फूल कितने अब, बागबां ये आंकता है.
बिचारे सांभा को गजल की समझ कहां? वो चौबीसों घंटे लूटपाट चोरी डकैती के धंधो मे रमा रहने वाला आदमी. पर क्या करे? फ़िर भी पहचान गया कि ये समीर लाल ’समीर’ की लिखी गजल को गब्बर उस्ताद उडा लाये हैं और खुद की बता रहे हैं..
अब सांभा ने सुनाना शुरु किया....और गब्बर ने दाद देना शुरु किया.
कोई पंडित ही होगा जो किस्मतों को बांचता है
उसे तो खुद पता है, उसका ही घर कांच का है.
न दिखता चांद है न चमक तारों की दिखती है
मचलना तुम जिसे समजे, वो स्टेप नाच का है.
बड़े नादान हो तुम, जो गधे को रहनुमा समझे
बचे हो शह से अबके, वक्त अब की लात का है.
जो हो गोदाम ऐबों का, उसी का नाम सियासत है
उसी को हम गिरा डालें, हमें जो हांकता है.
उसे चुनाव लड़ना है तभी सहमा सा दिखता है
जिता कर देखा लो इक बार, कैसे डांटता है
अब गब्बर उस्ताद ने जम कर सांभा को दाद दी और कहा - सांभा तुम तो बहुत बहुत अच्छे गजलकार हो..भई लगातार लिखो..और प्रेक्टिस करो...
सांभा - उस्ताद अगर मैं गजल लिखने लग गया तो ये इतना बडा गिरोह कौन संभालेगा? गजल/कविता कहना हुनर तो है सरदार लेकिन यह रोटी नहीं देता.
गब्बर और सांभा की तरफ़ से आप सबको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं! अब अगले साल २०१० मे आपसे फ़िर मुलाकात होगी तब तक के लिये रामराम.
विशेष सूचना :-
साल २००९ की मेगा पहेली मे ताऊजी डाट काम पर हिस्सा लिजिये. और पहेली चेंपियन आफ़ २००९ बनने का सौभाग्य प्राप्त किजिये!इस चित्र में कुल कितने चेहरे हैं? सभी के नाम बताईये!
अपना जवाब देने के लिये पधारिये ताऊजी डाट काम पर !