पडौसन भाभी जी और नागरिक अधिकार
शातिर तो हम भी कोई कम नहीं हैं और हमारी घरवाली भी कोई ज्यादा शरीफ़ नहीं है पर हम दोनों को ही इस बात का कभी अंदाजा भी नही था कि भाभीजी इस तरह की हरकत भी पटक सकती हैं पर भगवान को हाजिर नाजिर जानकर आपसे निवेदन कर रहे हैं और आप पाठक ही इस बात का फ़ैसला करें कि भाभीजी ने ये गलत किया या सही किया? अब बदला लेने का ये कौनसा तरीका है?
बीती रात हम और घरवाली दोनों गहरी नींद में सो चुके थे, नींद इतनी गहरी आई थी कि लगा सपने में कहीं कोई गोला बारी हो रही है.....प्रकृति ने खास इंतजाम कर रखा है कि नींद में खलल नही पडे, इस लिये हमारे सपने में वैसा ही सीन तैयार कर देती है सो हमें लगा कि हम काश्मीर घूमने गये हुये हैं और वहां आतंक वादियों के साथ चल रही मुठभेड में चल रही गोलाबारी के बीच फ़ंसे हुये हैं सो हम दुम दबाये गोलाबारी की आवाज सर घुटनों में दबाये सुन रहे थे.....पर घरवाली को प्रकृति ने शायद यह सुविधा नही दे रखी होगी सो उसने हमें जोरदार धक्का मारते हुये चिल्लाकर झिंझोड डाला और बोली - तुम तो घोडे बेचकर सो रहे हो और बाहर गोलीबारी की आवाजे आ रही हैं, जावो बाहर जाकर देखो क्या मामला है?
हमने आंखे मलते हुये घडी की तरफ़ देखा तो रात के 1 बजने में 5 मिनट बाकी थे.....चलते हुये कूलर ने बाहर से सारे बारूद की गंध घर में भर दी थी, घबडा तो हम भी गये थे कि कोई अनहोनी तो अवश्य हुई है.
डर भी लगा बाहर निकलने में, पर क्या करते? बाहर से बडा डर घरवाली के रूप में घर के अंदर बैठा था सो रामराम करते हुये दरवाजे खोलकर बाहर पोर्च पर निकल कर देखा तो पडौस वाले नेता जी अपने बीबी बच्चों और नौकरों के साथ घर के बाहर पटाखे छुडा रहे थे. आमने सामने वाले पडौसी भी बाहर निकल आये थे...
हमने रस्सी बम को माचिस लगाती हुई भाभीजी से पूछा - भाभीजी आज क्या बात है? ना दिवाली और ना ही क्रिकेट का मैच.....पटाखे क्यों बज रहे हैं? क्या भाई साहब कार्पोरेशन के अध्यक्ष की बजाये केबिनेट मंत्री बन गये या कोई किसी का जन्म दिन है?
भाभीजी ने बडी अदा से रस्सी बम को तीली लगाते हुये कहा - सही पकडे हैं आज नेताजी का जन्म दिन है. रात के 12 बजते ही केक काटने की रस्म किये फ़िर अब आकर यह खुश खबरी मोहल्ले में भी देनी थी सो हम बम चला चला कर दिये हैं...कैसा लगा आपको हमारा आईडिया?
आसपास के घरों के छोटे बच्चे जागकर चिल्लपों मचा रहे थे....बुढे बुढियायें भी नींद में खलल पडने से परेशान थे. हमने होठों में बुदबुदाते हुये ही कहा - भाभीजी आप जैसे छिछोरे लोग जिनके पडौस में रहते हों वो जरूर पिछले जन्म में कोई पाप करके आये होंगे......भाभीजी ने हमारे मुंह की तरफ़ देखते हुये पूछा - भाई साहब आपके होंठ फ़िर से कुछ फ़डफ़डा से रहे हैं जरा जोर से बोलिये ना.....
हम क्या बोलते? भुनभुनाते हुये अंदर आगये...और सोचने लगे कि क्या यही हमारे देश का कल्चर है कि दिन रात जब मर्जी आये तब लोगों को परेशान करो...सारे नागरिक अधिकारों का ठेका सत्ता संपन्न लोगों के ही हाथ में है? जिनके हाथ में पावर हो उनको कोई कुछ नही कहेगा.
यदि भाभीजी की जगह हमारी घरवाली ऐसा कोई कांड हमारे जन्म दिन पर करदे तो क्या होगा? और अब यही हमारी गहन चिंता का विषय है क्योंकि हमारा जन्म दिन भी आने ही वाला है और हमारी घरवाली को हम बहुत अच्छी तरह से जानते हैं वो कोई कांड करेगी जरूर.......फ़िर क्या होगा?
है कोई इलाज या सलाह आपके पास?
पहले तो मानहानि करवाओ फिर मुकदमा ठोको
ये एहसास है कि सास है....या जरूरी धर्म है? यानी पहले तो मानहानि करवाओ फिर मुकदमा ठोको, पर ये बात जब समझ आ जाये तभी बनती है।
मान और मान हानि किस चिड़िया का नाम है ये हमको हमारे बापू ने कम उम्र में ही समझा दिया था। जिस दिन तक समझ नही आया था तब तक सब ठीक था। हमारे बापू जिनके साथ हम गद्दी पर यानी वही लालाओं वाली गद्दी पर बैठा करते थे, उस समय में यदि हमने दुकानदारी के मामले में बापू की तयशुदा सीमा रेखा पार करदी तो बापू जमकर हमारी लू उतार देता था और हमारी गलती कुछ ज्यादा हुई यानी कम पैसे लेकर किसी को ज्यादा सामान दे दिया तो बापू की बेंत भी बेरहमी से हम पर बजने के इंतजार में ही रहती थी।
ऐसा हमारे साथ एक दो दिन छोड़कर होता ही रहता था, जब तक स्कूल में रहे तब तक गणित वाले मास्साब की बेंत हम पर बज बज कर हमारी जमकर मानहानि करती रही और स्कूल छोड़कर कालेज आये तो ये बापू की बेंत। गोया हम मंदिर का घण्टा थे जिसको बजना जन्म सिद्ध अधिकार में प्राप्त था। पर हम भी पुत्रधर्म निभाते हुए ज्यादा कोई ध्यान नही देते थे। मानहानि का तब तक मतलब ही नही मालूम था सो बड़े प्रेम से करवाते रहते थे।
एक दिन बापू की तबियत को बुखार ने कुछ ढीला कर डाला था सो अम्मा ने उनको मना कर दिया कि आज आराम करलो। सो इस हालत में गद्दी का पूरा चार्ज हमे मिल गया। मानो किसी राज्य का राज मिल गया हो सो हमने अपने दोस्तों को बुलवाकर गद्दी में ही आदत मुताबिक गीत संगीत की गप्प गोष्ठी आयोजित कर डाली, पर किस्मत देखिए गोष्ठी जमे आधा घण्टा ही हुआ होगा और बापू बेंत लिए आ धमका…......काहे से की बापू यदि गद्दी पर नही आये तो उनकी खराब तबियत की तबियत और भी ज्यादा खराब हो जाया करती थी सो बापू खुद का बुखार उतारने गद्दी चला आया था।
संटू भिया कबाड़ी तो बाद में बने उसके पहले वो हमारे कालेज के सहपाठी रहे हैं और हमारी हर अच्छी बुरी करतूत के साथी भी रहे हैं और हमारी महफिलों के गवैया भी सो बापू के चरण कमल जब गद्दी पर पड़े तब संटू भिया का कलाम चल रहा था..."आ जारे...अँखियाँ तक गई पंथ निहार... " बस बापू ने आव देखा ना ताव...दो बेंत संटू भिया को जमाये और जब तक माजरा समझ आता तब तक दो तीन हमको भी पड़ चुके थे..... बाकी दोस्त भाग लिए और हम भी भाग लिए....अब घर पहुंचकर अम्मा को वही डली वाला नमक मिलाकर बापू की जमकर मानहानि कर डाली। वो तो गनीमत थी कि बापू और अम्मा ज्यादे पढ़े लिखे नही थे वरना हम पर 10 करोड़ का मुकदमा बजा देते।
वो तो भला हो सरकार का जो उस समय टाटा का आयोडीन वाला तेज नमक नही आता था बल्कि डली वाला नमक आता था जिसमे आयोडीन नहीं होने से उतना तेज नही था सो शिकायत का मजा नही आता था। पर अम्मा बिना कहे ही समझ जाती थी कि माजरा क्या है।
शाम को बापू घुनघनाते हुए घर आये और आते ही अम्मा के सामने हमारी करतूतों के कसीदे निकालना शुरू कर दिए। अब अम्मा तो अम्मा ठहरी, उल्टे बापू के मत्थे हो ली कि जवान जहीन बेटा है, बराबरी का होगया, उसकी इतनी बेइज्जती करने के पहले सोचना चाहिए आपको।
बस अम्मा का इतना कहना था कि बापू तो बादशाह औरंगजेब की तरह भड़क लिए.... कहने लगे ये एक दिन नाम रोशन करेगा बाजार में मेरा.... आवारा लौंडो को गद्दी पर बैठाकर अड्डेबाजी करता है... इसकी काहे की इज्जत... कहाँ लटक रही है इसके पिछवाड़े में इज्जत... जरा मैं भी तो देखूं...बुला उसको....
बापू का रौद्र रूप देख हम चुपचाप वहां से खिसक अपने अड्डे पर आ गए और रात गद्दी पर ही जाकर सो गए....लाला लोगों के यहां ये आराम का काम होता है कि घर से नाराज होके निकल लो तो सोने के लिए गद्दी जिंदाबाद, और हम तो अक्सर ही गद्दी जिंदाबाद करते रहते थे। शादी होने के बाद कई बार घरवाली से नाराज होके भी हमने गद्दी जिंदाबाद की है।
कसम से आज का 10 करोड़ वाला मानहानि का जमाना होता तो बापू को छठी का दूध याद दिला देते । 10 करोड़ का मानहानि का मुकदमा ठोककर... बापू भी क्या याद रखता की कोई तो सपूत हुआ जो बापू को कोर्ट में ले आया।
वैसे मुकदमे का कोई फायदा ज्यादे होना भी नही था क्योंकि बापू के पास दस करोड़ का जुगाड़ भी नही था। कुल मिलाकर एक मकान और एक गद्दी....जो बापू ने अब हमें ही सौप दी है।
पर हम अब अपने मन मे यही मानकर चलते हैं कि हमे ये मकान और गद्दी कोई विरासत में नही मिली है बल्कि बापू ने हमारी जो मानहानि सारे बचपन और जवानी में की थी ये उसके बदले मिली है।
आजकल चाहे जो चाहे जिसके खिलाफ 10 करोड़ मानहानि का केस लगा रहा है जिसका ना फैसला होना है और ना वसूली होना है। हम तो कहते हैं कि मानहानि का मुकदमा ही लगाना है तो घर के किसी सदस्य पर लगावो, उसकी वसूली पक्की है। अब हम सोच रहे हैं कि घरवाली जो हमे रोज लठ्ठ मार मार कर हमारी मानहानि करती है उसके खिलाफ एक मुकदमा दर्ज करवा दिया जाए तो 10 करोड़ भले ही ना मिले पर उसकी अक्ल तो ठिकाने आ ही जाएगी।
और कसम से दूसरा मुकदमा हम गणित वाले मास्साब के खिलाफ करवाने का पक्का मन बना चुके थे पर हमारी किस्मत में शायद 10 करोड़ लिखे ही नही हैं क्योंकि मास्साब अब ऊपर निकल लिए हैं।
हर जगह हर व्यक्ति की मानहानि के स्वर्णिम अवसर आते ही रहते हैं सो जब भी मौका मिले चुकियेगा नही। आपको कुछ विशेष राय चाहिए तो हमे याद कर लीजिएगा।
"क्या लिखूं…!" बस सींग घुसेड दो...कहीं भी घुसेडो!
सिगरेटिया धुआँ और फ़ेसबुकिया चिंतन
ना आदमी सिगरेट छोड सकता है और ना ही फ़ेसबुकियाना……..।
टेलीफोन की जुबानी, शीला, रूपा उर्फ रामूड़ी की कहानी
होरासियो विलेगेस ने 13 अप्रैल से 13 मई के बीच तीसरे विश्वयुद्ध की जब से घोषणा की है तबसे राम राम करते महीना पूरा होने में है. जिस तरह पेड़ की ऊंचाई से उतरते समय आदमी ऊँचाई से तो नही गिरता पर नीचे आकर जरूर से टपक लेता है कुछ वैसा ही हाल हमारा था. कल ही 13 मई थी और भविष्यवाणी का यही आखिरी दिन, एक एक पल काटना मुश्किल, अब बम गिरेगा, तब बम गिरेगा. अब दुनियां के साथ साथ हम खत्म होंगे......और तो और हमको सबसे ज्यादा दुख तकलीफ इस बात की थी कि सारे फेसबुकिये मित्र भी छूट जाएंगे......फ़िर हम अपने मन को दिलासा देते कि ब्लागर से बिछुडे मित्र फ़ेसबुक पर मिल गये तो इस दुनियां से बिछुडकर कहीं और मिल जायेंगे. इन सब चीजों से बेखबर अनूप शुक्ल जी ने मौज लेते लेते आज का विषय थमा दिया "टेलीफोन". अब बताइये, ऐसे माहौल में कोई टेलीफोन के बारे में लिख सकता है क्या? पर सुकुल जी ठहरे ऐसे गुरू, जो परीक्षा में बच्चों को कठिन से कठिन सवाल ही पूछेंगे.
वैसे भी आजकल के मोबाइलों में वो आकर्षण नही है जो पुराने जमाने के डायल वाले टेलीफूंनो में था। इन कम्बख्तों के सीने में इतने बड़े बड़े राज दफन हैं कि शरीफ आदमी तो इनकी बात सुनकर ही प्राण त्याग दे. इनकी बातचीत सुनकर तो ऐसा लगता है की कहीं ये हमारी भी इज्जत के पंचनामे ना करवा दें.
आज के विश्वयुद्ध से बचें, यही प्राथमिकता थी, इससे बच पाए तो टेलीफोन की भी सुनी जाएगी। इसी टेंशन में हम चले जा रहे थे कि संटू भिया की खनकती आवाज से होश आया कि हम तो संटू भिया के कबाड़खाने आ पहुंचे हैं. भिया के कबाड़खाने में एक तलघर भी था, हम अपने डर की वजह से भिया के साथ सुरक्षित रूप से उनके "एंटी-न्युक्लियर बंकर" जैसे तलघर में ही आज का दिन काटना चाहते थे, सो जाकर वहीं एंटी-न्युक्लियर बंकर जैसे तहखाने में जम लिए.
तहखाने में कई तरह के कबाड़ पड़े थे तभी हमको अपने पीछे से कुछ बाते करने की आवाजें सी आती मालूम पड़ी...... एक बार तो हम डरे की कहीं ये हमारे उस्तादों वाली शीला...रुपा या रामूड़ी तो नही हैं? आखिर वो भी परमाणु हमले से बचने के लिए यहां आ छुपी हों? उस्ताद लोग उन्हें अपने हाल पे छोडकर सुरक्षित मांद में मजे कर रहे हैं और ये बेचारी शीला और रूपा यहां दिन काट रही हैं.
खैर हमारा ख्याल गलत निकला…..वहां तरह तरह के पुराने बाबा आदम के जमाने के टेलीफ़ोनों का ढेर लगा था और वो आवाजे उन्हीं के बतियाने की थी. वो बीते जमाने की बातें कर रहे थे. उनकी बातें सुनकर हम अपना डर भूलकर ध्यान से सुनने लगे. उनमें एक जो बहुत ही क्लासिकल मोडल था जिसे आपने फ़िल्मों में जरूर देखा होगा…..वहां रखे सभी फ़ोनों में बुढ्ढा होने के बावजूद भी उसमें एक शाही गरूर सा लगा….हमने पूछा, दद्दा, आप तो फ़िल्मों में होते थे यहां क्या कर रहे हो?
बुढऊ ने आह सी भरते हुये कहा – क्या बतायें…हम तो सुरैया बेगम के ड्राईंग रूम में रहते थे और उन्हीं के इश्क में गिरफ़्तार होकर रह गये थे……हाय हमें अपने नाजुक नाजुक हाथों से पकड कर जब वो देव साहब से प्यार भरी बाते करती थी तो हमें चूम लिया करती थी, कसम से क्या दिन थे वो भी…..वो थोडा खांसा,,,,शायद बुढापे का असर था उस पर….फ़िर कहने लगा कि एक दिन देव साहब से बातें करते देखकर उनकी अम्मा ने हमे चूमते हुये देख लिया, बस फ़िर क्या था, अम्मा ने हमें ही उठाकर फ़र्श पर दे मारा और हमारी दोनों टंगडियां टूट गई और उस दिन के बाद हमने सुरैया बेगम की शक्ल तक नही देखी. और अब तक इंतजार में दिन काट रहे हैं……हाय मेरा इश्क परवान ना चढ सका, वो आह सी भरते हुये बोला….
तभी बीच में एक काला कलूटा सा बिल्कुल ही गरीब श्रेणी का डायल वाला पहलवान टाईप का फ़ोन बोल पडा – अरे ओ बुढऊ…अब कहां तेरा इश्क…वो तो कब का पाकिस्तान निकल लिया था बे. अरे इश्क तो हमने किये नही पर देखे खूब हैं….हमको ये काला पहलवान कुछ राजदार सा लगा सो हम उसकी तरफ़ मुखातिब हो लिये…पहलवान को जब लगा कि हम उसे तवज्जो दे रहे हैं तो शुरू हो गया. बोला…साहब वो भी क्या दिन थे? आजकल तो हर छोरे छारी की जेब में मोबाईल नाम का फ़ोन रहता है, हमारी तो क्या अब मोबाईल की भी कोई बख्त नही रही. अगला मोडल आते ही पिछला कबाडे में चला जाता है. और एक हमको देखो….सेठ लोगों की तिजोरियों के बराबर बैठा करते थे और सुबह सुबह सेठजी आकर लक्ष्मी जी के साथ साथ हमारी भी आरती उतारा करते थे. और हमारी छाती में तो इतने राज दफ़्न हैं कि यदि खोल दें तो भूचाल आ जाये.
हमने कहा भैये…ये भूचाल राहल गांधी और नसीमुद्दीन वाले ही हैं या कुछ सही भी हैं? वो नाराज होते हुये बोला – देखो साहब आप गाली तो हमें दो मत. हम राजनेता नही हैं हम तो वफ़ादार किस्म के हैं इसीलिये एक एक राज सीने में दफ़्न करके बैठे हैं.
हमने कहा – चचा…इता बोझ सीने पर लिये काहे बैठे हो….आपका अंत तो हो लिया….कुछ अपने राज हल्के करलो तो सकून से अगला जन्म ले पाओगे. खोल दो अपने दिल की गिरह….वो कुछ सोचते हुये बोला…अब क्या सेठजी की बेईमानी का राज खोलूं या सेठानी जी की बेवफ़ाई का या सेठ जी की छोरी शीला या रूपा का……?
शीला या रूपा नाम सुनते ही हमारी बत्ती टिमटिमाने लगी….हमने पूछा चचा कहीं तुम वो मढाताल वाले सेठ धन्नालाल के फ़ोन तो नही हो? वो खुशी से चहकते हुये बोला – अरे आप हमको कैसे पहचान लिये इत्ते सारे फ़ोनों में…..
अब हम क्या बोलते…..कि हम भी कयामत की नजर रखते हैं….पर हमने उसे चने के झाड पर चढाते हुये कहा – चचा आप यहां रखे सभी फ़ोनों में खानदानी लगते हो…बाकी में दम नही लगता. वो खुश होकर खिलखिलाने लगा….हमने लोहा गर्म जानकर अपने मतलब की बात पूछी….चचा आप कुछ वो शीला या रूपा की बात कर रहे थे……
काले पहलवान ने तो अब हमको अपना खास सगा मान लिया था सो बोला – आपको तो मालूम ही होगा कि किस्सा क्या हुआ था? हमने कहा मालूम तो है ही है, पर वो सब उडती उडती सी खबरें ही थी अब आपके मुंह से सुने तो पक्का हो. वो बोला – आदमी तो आप सलीके के लगते हो, उडती बातों पर भरोसा नहीं करना चाहिये बल्कि कानों सुनी पर ही करना चाहिये. वो किस्सा कुछ ऐसे हुआ था कि शीला बेबी कालेज जाने लगी थी…. और थी भी बला की खूबसूरत…..हमको जब अपने होंठों के पास ले जाकर हैल्लो कहती थी तो हमारे दिल की धडकने बढ जाया करती थी……और सच में बुढऊ टेलीफ़ोन की सांसे तेज चलने लगी….खांसने लगा, हमने सोचा कहीं ये सारे राज सीने में लिये लिए ही राम नाम सत्य ना हो जाये….हम इत्ता सोच भर रहे थे कि बुढऊ की आवाज आई… हां तो हम कहां थे….हमने कहा – चचा आप वो शीला वाला किस्सा बता रहे थे….
शीला के नाम से ही उसके काले चेहरे पर ऐसी चमक आगयी जैसे किसी ने चेरीब्लासम वाली पालिश करदी हो. वो कहने लगा – जब शीला बेबी कालेज से आती तो एक गोल मटोल सा हैंडसम लडका अपनी साईकिल लिये पीछे पीछे आने लगा….कुछ दिन तो यूं ही चलता रहा फ़िर मालुम पडा कि वो पास ही में रहने वाला है…कुछ तो नाम था उसका…याद नहीं आ रहा…..शायद…….मीर लाल या ऐसे ही कुछ था…
अब क्या बताये वो तो शीला बेबी और उसकी सहेली रूपा के पीछे हाथ धोकर ही पड गया, जब रास्ते में बात नही बनी तो उस लडके ने नया तरीके का पैंतरा खोज लिया और अपने दोस्तों से हम पर फ़ोन करवाने लगा. घंटी बजती और उधर से कोई कहता , जी आपके पड़ौस में वो ...मीर रहता है ना उसे बुलवा दीजिये... बहुत जरूरी काम है. फोन उठाने वाली शीला या रूपा होती तो ऐसी ऐसी बातें होती कि क्या बताऊँ....हम भी सेठ जी के यहां 3 पीढ़ी से रहे थे पर साहब ऐसा आशिक नही देखा था.... उसे बुलाने जब कभी बेबी उसके घर जाती तो वहीं इनकी मिलने की ख्वाहिश पूरी हो लेती थी.
एक दिन का किस्सा बताऊं....मैं बजा ट्रिन...ट्रिन...ट्रिन...ट्रिन... फोन घर के नौकर रामचरण ने उठाया, क्योंकि बेबी उस समय घर पर नहीं थी, उधर से कोई बोला कि मैं ..मीर का मौसा बोल रहा हूँ मीर को बुलवा दीजिये.....हमें रोज रोज की कसरत से शक तो हो ही चला था…हम भी दम साधे सुनते रहे....नौकर ..मीर को बुला लाया.... आते ही उसने घर मे चोर नजरों से किसी को ढूंढते हुए हैल्लो कहा…...हाँ मौसा जी नमस्ते, हाँ क्या कहा.... मौसी जी की तबियत खराब है?......
उधर से मौसा बोला - अबे स्साले मैं अमर बोल रहा हूँ बे.......अबे मैंने तेरी वाली को फ़ोन कर दिया है अब तू जाकर मेरी वाली को फ़ोन करदे….हमारा शक सही साबित हुआ.... हमसे क्या छुप सकता था क्योंकि बात तो हमारे द्वारा ही होती थी.
खैर शीला बेबी और उसकी मेल मुलाकातें बढती गयी पर किस्सा परवान नहीं चढ सका……हमने पूछा – चचा क्या हुआ? वो कुछ बतला पाता इसके पहले ही….उसकी आखिरी सांस उखडने लगी…..हमने कहा चचा आज आराम कर लो यदि आज विश्वयुद्ध टल गया तो कल आकर आपकी पूरी कहानी सुनेंगे. हमको अब शीला का राज तो आधा अधूरा पता चल चुका था पर ये रूपा का राज राज ही रह गया…
वाकई पुराने जमाने में घर में टेलीफ़ोन का होना रसूख तो था साथ ही साथ इस तरह के दिवानों के गले पडने का सबब भी था….जमाना उस दौर से मोबाईल के जमाने में आ गया पर जो राज पुराने टेलीफ़ोनों के सीने में दफ़्न है वो मोबाईल में कहां? मोबाइल में डिलीट सुविधा है पर इन काले फोनों में असली वाला दिमाग था, इस वजह से इनसे पंगा लेना अपनी खटिया खडा करवा लेने के बराबर था.
डिस्क्लेमर: कोई भी व्यक्ति इस किस्से को अपने आप से नही जोड़े, यह सिर्फ काल्पनिक है और किसी की जिंदगी से मिलता है तो महज सिर्फ एक संयोग है, और खासकर Udan Tashtari के बारे में तो बिल्कुल नही.
वही रामदयाल और वही रामदयाल की गधेडी की कडी निंदा...
और फिर निंदित होने में कितना बड़ा सुख मिलता है जरा कल्पना कीजिये, निंदित होने वाला भी निंदित होकर वैतरणी पार हो लेता है..... ना कुछ खर्चा पानी और ना ही कोई बवाला...मनोरंजन मुफ़्त में. और इसीलिये तो निंदा करना और निंदित होना, महिलाओं के लिये इतना कीमती माना गया है. बस जरा चौका चूल्हा समेट कर फ़ुरसत हुई नही कि आसपास में किसी के यहां भी इकठ्ठी होकर निंदा महोत्सव शुरू कर देती हैं. पर महिलाएं इस गुमान में ना रहें की अब ये निंदा पुराण उनकी बपोती रह गया है अब तो सारे 56 इंच की छाती वाले मर्द और सरकारे भी निंदा की जगह कडी निंदा और घनघोर निंदा पुराण का सहारा लेने लगी हैं.


