ये एहसास है कि सास है....या जरूरी धर्म है? यानी पहले तो मानहानि करवाओ फिर मुकदमा ठोको, पर ये बात जब समझ आ जाये तभी बनती है।
मान और मान हानि किस चिड़िया का नाम है ये हमको हमारे बापू ने कम उम्र में ही समझा दिया था। जिस दिन तक समझ नही आया था तब तक सब ठीक था। हमारे बापू जिनके साथ हम गद्दी पर यानी वही लालाओं वाली गद्दी पर बैठा करते थे, उस समय में यदि हमने दुकानदारी के मामले में बापू की तयशुदा सीमा रेखा पार करदी तो बापू जमकर हमारी लू उतार देता था और हमारी गलती कुछ ज्यादा हुई यानी कम पैसे लेकर किसी को ज्यादा सामान दे दिया तो बापू की बेंत भी बेरहमी से हम पर बजने के इंतजार में ही रहती थी।
ऐसा हमारे साथ एक दो दिन छोड़कर होता ही रहता था, जब तक स्कूल में रहे तब तक गणित वाले मास्साब की बेंत हम पर बज बज कर हमारी जमकर मानहानि करती रही और स्कूल छोड़कर कालेज आये तो ये बापू की बेंत। गोया हम मंदिर का घण्टा थे जिसको बजना जन्म सिद्ध अधिकार में प्राप्त था। पर हम भी पुत्रधर्म निभाते हुए ज्यादा कोई ध्यान नही देते थे। मानहानि का तब तक मतलब ही नही मालूम था सो बड़े प्रेम से करवाते रहते थे।
एक दिन बापू की तबियत को बुखार ने कुछ ढीला कर डाला था सो अम्मा ने उनको मना कर दिया कि आज आराम करलो। सो इस हालत में गद्दी का पूरा चार्ज हमे मिल गया। मानो किसी राज्य का राज मिल गया हो सो हमने अपने दोस्तों को बुलवाकर गद्दी में ही आदत मुताबिक गीत संगीत की गप्प गोष्ठी आयोजित कर डाली, पर किस्मत देखिए गोष्ठी जमे आधा घण्टा ही हुआ होगा और बापू बेंत लिए आ धमका…......काहे से की बापू यदि गद्दी पर नही आये तो उनकी खराब तबियत की तबियत और भी ज्यादा खराब हो जाया करती थी सो बापू खुद का बुखार उतारने गद्दी चला आया था।
संटू भिया कबाड़ी तो बाद में बने उसके पहले वो हमारे कालेज के सहपाठी रहे हैं और हमारी हर अच्छी बुरी करतूत के साथी भी रहे हैं और हमारी महफिलों के गवैया भी सो बापू के चरण कमल जब गद्दी पर पड़े तब संटू भिया का कलाम चल रहा था..."आ जारे...अँखियाँ तक गई पंथ निहार... " बस बापू ने आव देखा ना ताव...दो बेंत संटू भिया को जमाये और जब तक माजरा समझ आता तब तक दो तीन हमको भी पड़ चुके थे..... बाकी दोस्त भाग लिए और हम भी भाग लिए....अब घर पहुंचकर अम्मा को वही डली वाला नमक मिलाकर बापू की जमकर मानहानि कर डाली। वो तो गनीमत थी कि बापू और अम्मा ज्यादे पढ़े लिखे नही थे वरना हम पर 10 करोड़ का मुकदमा बजा देते।
वो तो भला हो सरकार का जो उस समय टाटा का आयोडीन वाला तेज नमक नही आता था बल्कि डली वाला नमक आता था जिसमे आयोडीन नहीं होने से उतना तेज नही था सो शिकायत का मजा नही आता था। पर अम्मा बिना कहे ही समझ जाती थी कि माजरा क्या है।
शाम को बापू घुनघनाते हुए घर आये और आते ही अम्मा के सामने हमारी करतूतों के कसीदे निकालना शुरू कर दिए। अब अम्मा तो अम्मा ठहरी, उल्टे बापू के मत्थे हो ली कि जवान जहीन बेटा है, बराबरी का होगया, उसकी इतनी बेइज्जती करने के पहले सोचना चाहिए आपको।
बस अम्मा का इतना कहना था कि बापू तो बादशाह औरंगजेब की तरह भड़क लिए.... कहने लगे ये एक दिन नाम रोशन करेगा बाजार में मेरा.... आवारा लौंडो को गद्दी पर बैठाकर अड्डेबाजी करता है... इसकी काहे की इज्जत... कहाँ लटक रही है इसके पिछवाड़े में इज्जत... जरा मैं भी तो देखूं...बुला उसको....
बापू का रौद्र रूप देख हम चुपचाप वहां से खिसक अपने अड्डे पर आ गए और रात गद्दी पर ही जाकर सो गए....लाला लोगों के यहां ये आराम का काम होता है कि घर से नाराज होके निकल लो तो सोने के लिए गद्दी जिंदाबाद, और हम तो अक्सर ही गद्दी जिंदाबाद करते रहते थे। शादी होने के बाद कई बार घरवाली से नाराज होके भी हमने गद्दी जिंदाबाद की है।
कसम से आज का 10 करोड़ वाला मानहानि का जमाना होता तो बापू को छठी का दूध याद दिला देते । 10 करोड़ का मानहानि का मुकदमा ठोककर... बापू भी क्या याद रखता की कोई तो सपूत हुआ जो बापू को कोर्ट में ले आया।
वैसे मुकदमे का कोई फायदा ज्यादे होना भी नही था क्योंकि बापू के पास दस करोड़ का जुगाड़ भी नही था। कुल मिलाकर एक मकान और एक गद्दी....जो बापू ने अब हमें ही सौप दी है।
पर हम अब अपने मन मे यही मानकर चलते हैं कि हमे ये मकान और गद्दी कोई विरासत में नही मिली है बल्कि बापू ने हमारी जो मानहानि सारे बचपन और जवानी में की थी ये उसके बदले मिली है।
आजकल चाहे जो चाहे जिसके खिलाफ 10 करोड़ मानहानि का केस लगा रहा है जिसका ना फैसला होना है और ना वसूली होना है। हम तो कहते हैं कि मानहानि का मुकदमा ही लगाना है तो घर के किसी सदस्य पर लगावो, उसकी वसूली पक्की है। अब हम सोच रहे हैं कि घरवाली जो हमे रोज लठ्ठ मार मार कर हमारी मानहानि करती है उसके खिलाफ एक मुकदमा दर्ज करवा दिया जाए तो 10 करोड़ भले ही ना मिले पर उसकी अक्ल तो ठिकाने आ ही जाएगी।
और कसम से दूसरा मुकदमा हम गणित वाले मास्साब के खिलाफ करवाने का पक्का मन बना चुके थे पर हमारी किस्मत में शायद 10 करोड़ लिखे ही नही हैं क्योंकि मास्साब अब ऊपर निकल लिए हैं।
हर जगह हर व्यक्ति की मानहानि के स्वर्णिम अवसर आते ही रहते हैं सो जब भी मौका मिले चुकियेगा नही। आपको कुछ विशेष राय चाहिए तो हमे याद कर लीजिएगा।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 30 मई 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (30-05-2017) को
ReplyDelete"मानहानि कि अपमान में इजाफा" (चर्चा अंक-2636)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
वाह ताऊ जी क्या तीखा व्यंग लिख मारा है आपने मानहानि जैसे चर्चित बिषय पर। बधाई।
ReplyDelete