इस बार दीपावली के अवसर पर प्रदुषण का स्तर पिछले सालो के मुकाबले काफी कम बढ़ा ! असल में हम जैसे सुबह जल्दी घुमने जाने वाले लोगो को इन दिनों सूर्योदय के बाद घुमने जाने की सलाह दी जाती है ! कारण सूर्योदय के पहले का प्रदुषण स्तर ज्यादा होना ! वैसे भी मैंने महसूस किया की दीपावली की रात इस बार ज्यादा शुकून भरी बीती अन्य पिछली सालो के मुकाबले ! उतना शोर पटाखों का नही था ! कारण पता करने पर मालुम पडा की इस बार पटाखे काफी मंहगे थे ! ये एक कारण हो सकता है पर ज्यादा बड़ा कारण आर्थिक मंदी से ही जुडा हुआ बताया जा रहा है ! खैर साहब हर बुराई में भी अच्छाई होती है सो कम से कम इस मंदी का ये तो सीधा और तुंरत फायदा हुआ समझिये !
मेरे शहर के बीच में से आगरा-मुम्बई नॅशनल हाईवे गुजरता है ! जैसे २ इस पर दबाव बढ़ा इसके पेरेलल रिंग रोड बना ! फ़िर बायपास बन गया ! फ़िर भी इस पर शहर के ट्रेफिक का दवाब बढ़ता ही गया ! पिछले साल इसके चोडीकरण के नाम इस पर लगे अनेकों साल पुराने और सैकडो वृक्षों को काट डाला गया ! कुछ एक वृक्षों को भी ट्रांसप्लांट के नाम पर इधर उधर कर दिया गया लोग दिखावे के लिए !
ये कुछ पक्षी मैंने मेरे घर या उसके आस पास देखे हैं ! इनमे से ज्यादा तर पक्षी मेरे आपके घर बच्चो की तरह आते थे ! छत पर रखे पानी से दिन भर पानी पीते देखे जा सकते थे ! सुबह सुबह छत पर दाना खाने ये सारे पक्षी आते थे ! कुछ तो इतने शैतान पक्षी होते थे की जब घर के आँगन मे किसी छुट्टी के दिन आम के वृक्ष के नीचे बैठकर धूप सेकते हुए नाश्ता करते थे तब प्लेट में से ये पक्षी नाश्ता उठा लिया करते थे ! कौवा महाराज तो दिन भर बच्चो के हाथ से खाना छिनने की ताक में रहते थे !
यकीन मानिए अब तो श्राद्ध में भी कौवे नही दिखते ! मन समझाने को कौवे के नाम का श्राद्ध भोजन छत पर रखवा दिया जाता है !
धीरे २ ये पक्षी कम होते गए ! लेकिन इनमे से अनेको पंछी पिछले २/३ सालो तक घर की छतो पर आकर गाने गाते रहे हैं ! घर के लिए जब साल भर का गेंहू ख़रीदते थे तब 2 बोरी ज्वार साल भर के लिए पक्षियों के लिए भी ख़रीदते थे ! पर आज वो खाने वाले ही नही रहे या उनको हमने रहने नही दिया ?
मेरे घर के बिल्कुल पास ही कैदी बाग़ था ! यहाँ सजा याफ्ता कैदी श्रम करने आते थे ! सैकडो बीघा जमीन पर खेती होती थी ! लंगडा, हापूस और दशहरी आदि नस्ल के सैकडो आम के पेड़ थे ! जब तक ये बगीचा रहा ! हम लोगो ने इसके सिवाय और कहीं से आम नही खरीदे ! रोज सुबह बगीचे में घुमने जाते समय अपनी जरुरत से जो भी आम चाहिए वो बतादो ! इसका ठेकेदार बिल्कुल डाल पाक आम हमको दे देता था ! अब डाल पाक आम का स्वाद जिसने खाया हो वही जान सकता है ! कार्बाईड में पके आम क्या स्वाद देंगे ?
फ़िर इसी भूमि को सीमेंट के जंगल में बदलने की कवायद की गई ! पर प्रबुद्ध नागरिको के घोर विरोध के कारण बगीचा शासन की मंशा के अनुरूप सीमेंट के जंगल में तो तब्दील नही हो पाया ! पर बच भी नही पाया ! और वो जमींन जू अथोरिटी ( चिडिया घर ) के हवाले कर दी गई ! जहाँ से अधिकतर पेड़ और हरियाली तो खत्म हो गई ! हाँ , अब जिस जगह पक्षियों का बसेरा था उस जगह पर पशुओ को कैद करके रखने के लिए सीमेंट के पिंजरे बन गए हैं !
इस बगीचे में ये सारे पक्षी मैंने देखे हैं ! ये बिल्कुल बच्चो जैसी शैतानियाँ करते मैंने देखे हैं ! आज सिर्फ़ फोटो में रह गए हैं !
विकास के नाम पर शहर के सब पेड़ काट डाले गए ! ये पक्षी कहा रहने गए होंगे ? पिछले साल इक्कठे सैकडो पेड़ कटे थे ! उन पर रहने वाले पक्षी कुछ दिन शाम को अंधेरे में इधर उधर अपना आशियाना ढूंढ़ते देखे गए ! पर उसके बाद नही ! मैं सोचता हूँ क्या इस तरह हमारा घर कोई तोड़ डाले तो हम पर क्या बीतेगी ? क्या ये परिंदे भी वैसा ही
सोचते होंगे ! आज मेरे घर की छत पर २ मुठ्ठी ज्वार रोज डालते हैं ! पर यकीन कीजिये एक भी परिंदा नही आता वहाँ पर ! अब परिंदे देखना हो तो बर्ड सेंक्चुरी जाना पड़ता है ! उन्ही परिंदों को जो हमारे साथ हमारे पास ही बच्चो जैसे रहते थे ! मैं वाकई बहुत दुखी हूँ !
क्या हमारी आने वाली पिढीया इस बात का विश्वास करेंगी की ये पक्षी हमारे घरो के आस पास कभी रहते थे और हमारे घर के पेडो पर इनका बसेरा हुआ करता था ? इन परिंदों की आवाज की जगह आज हमारे घरो में या घर के आँगन में सिर्फ़ ट्रेफिक की आवाज या टी.वी. सेटों की आवाज गूंजती रहती है ! याद करिए शाम को घर लौटते इन परिंदों का कलरव ? शायद आप आपकी अगली पीढी को इसके बारे में बताएँगे तो वो पूछेंगे की ये कलरव क्या होता है ? तो स्वाभाविक रूप से वे शब्द कोष की सहायता लेंगे ! और इसके स्पष्ट रूप से दोषी हम ही हैं ! विकास के नाम पर हमने अपनी जड़ो को काट डाला है !
इब खूंटे पै पढो :-
यह बात ताऊ कच्ची पहली कक्षा में पढता था तब की है !
|
आपने एक भीषण समस्या पर हाथ रखा है.
ReplyDeleteअब यह पक्षी हमारे यहाँ आ गये हैं.
हम इन्हें दाना देने में चूक नहीं करते. क्या पता कब तक यहाँ भी रह पायें बदलती दुनिया के साथ.
पुछ्ल्ला मजेदार है एक दारुण कथा के बाद.
जबसे फोर लेन के नाम पर एबी रोड के सारे पेड़ काट डाले गए है, इंदौर गैस चेंबर बन गया है. कोई इंदौर की व्यस्त सड़कों पर महीने भर शाम को टहल ले, और धूल धुएँ के कारण दमे का मरीज न हो जाए, यह असंभव है. आजकल एबी रोड पर चौबीसों घंटे धूल का कोहरा छाया रहता है. अर्बन आइलैंड इफेक्ट के कारण अब शहर का तापमान भी अब पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गया है.
ReplyDeleteताऊ हम तो आ लिए.तेरे द्वारे पे.
ReplyDeleteबहुत ही संवेदना से भरा विषय उठाया आपने.
आजकल फ़ज़ाओं में ज़हर जो घुला हुआ है हमे लगता है पंक्षी या तो बोम्ब ब्लास्ट में मारे गये या फ़सादों में उनका स्टेंबिग हो गया.(चुपके से हलाक करना)
मैने इन परिंदों के प्रतीक को अपनी ग़ज़ल में इस तरह लिया था.
लौटे न क्यों परिन्दे अब शाम हो रही है,
है डाल डाल डाल सहमी हर पत्ती सोचती है ?
हमारे अहमदाबाद शहर में ब्लास्ट के बाद ये आलम है कि पंक्षी घर पे जब तक नहीं आते सब परेशान रहते हैं हद तो तब होती है ताऊ जब मैना मोबाइल कर के कनफर्म कर लेती है कि भाई तोता ज़िन्दा है भी की नहीं.
हम गांव से बिछुडे लोग शहरी कांक्रीट के जंगलों में असली पंक्षियों को भूल गये हैं बस कविता में प्रतीकों में उनकी शिनाख्त बाकी है.
एक बेहतरीन पोस्ट और उसपे चश्पा मासूम परिन्दो एवं घर की तस्वीरों के लिए आपको मुबारकबाद देता हूँ.
पँछियोँ को याद करते हुए प्रदुषण पर ध्यान देने लायक बातेँ बतलाईँ आपने पढकर अच्छा लगा -
ReplyDelete- लावण्या
अब तो चिडिया फोटो मैं ही दिखेंगी .घर मैं फुदकती गोरिय्या इतिहास की बात हो गई
ReplyDeleteताऊ, पता नहीं था इन्दौर में बसते हैं। इसी आलेख से पता लगा। फिर प्रोफाइल से कन्फर्म। मिलने का अवसर तलाशते हैं। चिड़ियाएँ वाकई कम हो गई हैं। गनीमत यह है कि सामने एक पार्क विकसित कर लिया गया है। बहुत से पेड़ लगाए हैं। मुहल्ले में एक रामधन मीणा हैं। उस पार्क और पृकृति को पागलपन की हद तक समर्पित। वे ही पर्यावरण को किसी हद तक बचाए हुए हैं। इसी से कुछ चिड़ियाएँ मौसम में दिख जाती हैं। सर्दी पड़ते ही नयी नयी आएँगी।
ReplyDeleteसच कहा आपने. पेड़ काटने के अलावा भी बहुत कुछ होता है. प्रवासी पक्षियों का शिकार, घोंसलों से तोतों की चोरी, मयूरपंख के लिए ज़हर देकर मोरों की ह्त्या, गैरकानूनी दवाओं के चलते भारतीय गिद्धों की ९७ प्रतिशत आबादी का सफाया कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं जो हमारी बेवकूफियां और लालच की गवाही देते रहते हैं.
ReplyDeleteसमस्या अपनी जगह है, हमें जब इन चिरैयाओंको चित्र में देखकर इतना अच्छा लग रहा है तो सामने देखने का तो मजा ही कुछ और होगा
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeletepost acchhi lagi ..hum ab bhi un kushkismaton me se hain..jinkey yahan bahut se pakshii aatey hain..ye brown badi chiriyaa ka naam yadi pataa ho to batayiye..hamarey yahan bahut se hain..per naam nahi jaantey inka...
ReplyDeleteदिन दूर नहीं दीखता जब किताबों का हिस्सा हो जायेगा. ज्ञानजी की सोइंस वाली पोस्ट पर की गई टिपण्णी यहाँ भी प्रासंगिक होगी:
ReplyDelete--
"मुझे नहीं लगता कि यहां इनका शिकार किया जाता रहा होगा" कम से कम ये तो नहीं था. ऐसे कई जीव-जंतु विलुप्त हो गए. प्रदुषण के साथ शिकार भी.
बचपन में हमारे खेतों में भी हिरन और गर्मियों में कुछ ख़ास पक्षी (पहाडी चिडिया के नाम से लोग जानते थे) दीखते थे. अब सब विलुप्त हो गए कभी-कभी नीलगाय दिख जाती है. मुझे तो शिकार ही मुख्य कारन लगता है इन चिडियों और हिरन के गायब होने का.
माँ बताती हैं की पहले सुबह इतने पक्षी उड़ते थे कि सुबह ४ बजे उनके उड़ने के आवाज से ही लोग उठते थे. शाम को बड़े चमगादड़ (जिन्हें हम बादुर कहते थे, और कहते कि ये अमरुद खाने जाते हैं शाम को) अब वो भी नहीं दिखते. बगीचों में गिद्ध नहीं रहे (बगीचे ही नहीं रहे), बन्दर अब घरों की छतों पर रहते हैं !
और गंगा के बारे में माँ बहुत कुछ बताती है गंगा किनारे उनका गाँव था. सुना है पहले बड़े-बड़े जहाज चला करते थे. जिनके जाने के काफ़ी बाद तक लहरें आती. घड़ियाल गंगा किनारे बालू पर लेटे दिख जाते... सोइंस के बारे में भी. सब सुना ही है :(
इंसान ही एक ऐसी प्रजाति है जो अपनी जाति ही नही वरन दूसरी जाति को भी अपने स्वार्थ के लिए मिटाती है
ReplyDeleteअनुराग जी ने बिल्कुल ठीक कहा..
ReplyDelete" this is a very nice and interesting artical to read on a very critical issue, the pics of all the birds are very very beautiful and eye catching....enjoyed watching them"
ReplyDeleteRegards
बाप रे. क्या लाइन लागी से, कॉमेंट लिखण. पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाने के लिए बधाई और आभार.
ReplyDeleteताऊजी, आज पोस्ट पढ़ते ही मैं बीते दिनों की याद में खो गया। गर्मियों में जब हम अपने घर पर नीम की छांव में बैठा करते थे, तो नीम पर ना जाने कितने पक्षी भी होते थे। बहुत शोर मचाते थे। उन्हें भागने के लिए हम भी पूरी दोपहरी जोर जोर से ताली बजाकर हास-हास करते रहते थे। अब पक्षी तो चले गए। लेकिन नीम की छांव भी अब अच्छी नहीं लगती।
ReplyDeleteताऊ, पक्षियों के बारे में आपने बड़ा ही भावुकता से परिपूर्ण लेख लिखा ! वाकई इसकी सजा भी हम ही भोगेंगे !
ReplyDeleteआपने आज का खूंटा बड़ा जोरदार गाडा ! आज की पुरी पोस्ट हिन्दी में होने के बावजूद आपने खूंटे पर हरयाणवी बाँध ही दी !
"मास्टरजी, क्यूँ मगज पै देण लागरे हो ? उसपै खडे होण तैं के हिमालय दीखण लाग ज्यएगा ?
ना जी, बेंच पर खड़े होकर बिल्कुल नही दीखेगा हिमालय तो ! अच्छा हुआ मास्टर जी को बावलीबूच नही बोला आपने ! :)
[Photo]इस बार दीपावली के अवसर पर प्रदुषण का स्तर पिछले सालो के मुकाबले काफी कम बढ़ा ! असल में हम जैसे सुबह जल्दी घुमने जाने वाले लोगो को इन दिनों सूर्योदय के बाद घुमने जाने की सलाह दी जाती है ! कारण सूर्योदय के पहले का प्रदुषण स्तर ज्यादा होना
ReplyDeleteआपने सब बातें अच्छी कहीं .एक अनुरोध और है ,जो ऊपर लिखी हुई लाइनें हैं ये सुनी मैंने भी हैं लेकिन समझ में नहीं आयीं ,शायद बचपन से इसके विपरीत सोचने के कारण.
लेकिन अगर इस जानकारी पर प्रकाश डाल सकें तो अच्छा रहेगा.
@ प्रिय अनुपम जी ,
ReplyDeleteआप का आशय अगर सूर्योदय से पहले घुमने जाने के विषय में है तो वैज्ञानिक सोच ऐसा बताया जाता है की जब पेडो के पतों पर सूर्य किरणे पड़ती हैं तो आक्सीजन का उत्सर्जन बढ़ जाता है ! अत: दीपावली के समय का प्रदुषण वो भी अरुणोदय से ठीक पहले का काफी खतरनाक हो जाता है ! क्योंकि सारी रात पटाखे जलाकर सिवाए धुंए के कुछ भी नही रहता ! और मैंने इसको महसूस भी किया है ! और प्रदुषण रिपोर्ट भी रोज आती ही है ! सूर्योदय के बाद आक्सीजन की मात्रा बढ़ कर पोल्यूशन कम कर देती है ! और सुबह सूर्योदय के २ घंटे बाद तक वाहन काफी कम चलते हैं सो वह काफी उपयुक्त समय माना गया है !
वैसे देखा जाए तो सूर्योदय पूर्व का घूमना दुसरे सब कारणों से सुन्दरतम है और मुझे तो उसमे उगते सूर्य का निहारना ही सारे दिन के लिए चार्ज कर देता है ! वैसे मैं इसका कोई अथेंटिक जानकार नही हूँ ! :) मुझे बस इतना ही पता है ! इसी लिए रात्री को पेड़ के नीचे सोने को भी मना किया गया है ! नीम और पीपल इसमे अपवाद बताए जाते हैं ! उनके बारे में कहना है की ये २४ घंटे ही आक्सीजन का उत्सर्जन करते हैं ! आपके पास कोई और सुचना या जानकारी हो तो अवश्य शेयर करिएगा ! धन्यवाद !
बहुत ही संवेदना से भरा विषय उठाया आपने.पर्यावरण की समस्या दिनों दिन बढती ही जा रही |
ReplyDeleteपर्यावरण की बात सुनकर ताऊ आज तै दिल बाग-बाग हो ग्या। पर इस बाग में एक बी चिड़िया कोन्या, कारण आपणै बताए दिया। कितणी सुथरी बात कही आपणे-
ReplyDelete-सोचता हूँ क्या इस तरह हमारा घर कोई तोड़ डाले तो हम पर क्या बीतेगी ?
-शायद आप आपकी अगली पीढी को इसके बारे में बताएँगे तो वो पूछेंगे की ये कलरव क्या होता है ?
धन्यवाद,गम्भीर समस्या उठाइ है। आदमी विकास की दोड में पागल हो गया है। आशा है कभी तो सवेरा होगा।
ReplyDeleteवह मीठी आवाज़ अब बहुत कम सुनाई देती है ..चिडियों के लिए दाना कहाँ डाले वह भी जगह अब तलाशनी पड़ती है
ReplyDeleteइस समस्या की और ध्यान आकृष्ट कराने के लिए धन्यवाद.....
ReplyDeleteपारखी नजर,प्रखर कलम,प्रेरक ताऊ...
ReplyDeleteमैं नतमस्तक!
भैया इस पोस्ट को मैं टाप क्लास रेट करता हूं।
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट।
सब सपना हो गया है यह सब भारत मै, लेकिन यह सब हमारी अपनी गलतिया भी है,लेकिन यहा भारत से उलटा है, यहां यह सब अब भी पहले जेसा ही है, सब से बडी बात साफ़ हवा, साफ़ पानी,
ReplyDeleteबहुत ही सच्ची बात कही आप ने.
धन्यवाद
ताऊ जी, हम जहां रहते हैं वहां अभी भी पक्षी आते हैं। मोर नाचते हैं और भी हरा-भरा रहता है लेकिन आगे का सोच-सोच के डर लगता है। अच्छा लिखा। कल पढ़ा था आज टिपिया रहे हैं। इस बीच कई बार फोटॊ देखे। सुन्दर, अति सुन्दर।
ReplyDeleteएक सही चिंता है यह !और इस पर वक्त रहते जागना होगा नही तो कभी किसी रात की सुबह ही नही होगी !!
ReplyDeleteगंभीर समस्या !!!!!!!!
ReplyDeleteबहुत उम्दा प्रस्तुति!
देर से आने के लिए क्षमा
क्या हमारी आने वाली पिढीया इस बात का विश्वास करेंगी की ये पक्षी हमारे घरो के आस पास कभी रहते थे और हमारे घर के पेडो पर इनका बसेरा हुआ करता था ? इन परिंदों की आवाज की जगह आज हमारे घरो में या घर के आँगन में सिर्फ़ ट्रेफिक की आवाज या टी.वी. सेटों की आवाज गूंजती रहती है ! याद करिए शाम को घर लौटते इन परिंदों का कलरव ? शायद आप आपकी अगली पीढी को इसके बारे में बताएँगे तो वो पूछेंगे की ये कलरव क्या होता है ? तो स्वाभाविक रूप से वे शब्द कोष की सहायता लेंगे ! और इसके स्पष्ट रूप से दोषी हम ही हैं ! विकास के नाम पर हमने अपनी जड़ो को काट डाला है !......शतप्रतिशत सही लिखा है आपने
ReplyDeleteवाह ताऊ वाह. मजा आगया।
ReplyDeleteताऊ खूंटा सही ठोका है.:)
ReplyDelete