ताऊ डाट इन की यह शुरूआती पोस्ट्स (अक्टूबर-2008) में थी जो राष्ट्रीय समाचार पत्र हमारा मैट्रो में 20 मई 2013 को प्रकाशित हुई है. जिसकी सूचना श्री रतन सिंह जी शेखावत द्वारा फ़ेसबुक पर मिली. मूल पोस्ट में हरयाणवी शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा हुआ था. हरयाणवी शब्दों के साथ पढने की इच्छा हो तो यहां पर मूल पोस्ट उपलब्ध है. यहां शब्दों को थोडा बदल दिया गया है जिससे सभी समझ सकें तो थोडे हेर फ़ेर के साथ इस गर्मी के मौसम में यह पोस्ट आपको असली हरयाणवी फ़्लेवर की कुल्फ़ी फ़ालूदा विद रूहाफ़्जा का आनंद देगी, लीजिये नोश फ़रमाईये.
अक्सर ऐसा हो जाता है की हम अपने बारे में किसी दुसरे द्वारा कही बात को, अपने मनघडंत डर से अपने बारे में ग़लत तरीके से समझ लेते हैं. भले ही वो बात हमारे बारे में नही कही गई हो, और परिणाम स्वरुप हम बिना बात दुःख पाते हैं. ताऊ ने इसी बेवकूफी में अपना पैसा भी गंवाया और ख़ुद अपनी ही बेवकूफी से इस भरी गर्मी में इज्जत का कुल्फ़ी फालूदा बनवा लिया.
उस समय में खेती बाडी करने वाले लोगों को जेठ वैशाख के गर्मी भरे दिनों में कोई काम नही होता था. भारत खेती प्रधान देश था (अब कौन सा है? भगवान जाने), खेत खाली रहते थे. इसी वजह से इस खाली समय का उपयोग शादी ब्याह जैसे जरूरी काम निपटाने में होता था या खाली बैठे समय काटने के लिये ताश-पत्ती चौपड वाले खेल खेलते हुये बीतता था.
नब्बे फ़ीसदी शादी विवाह के काम इसी समय में निपटाये जाते थे क्योंकि बारात के परिवहन का साधन उस समय ऊंट, घोडे, बैलगाडी या रथ हुआ करते थे जो गर्मी में कोई काम नही होने की वजह से खाली मिल जाते थे. खेत भी खाली रहते थे जहां बारात के सोने के लिये रात में गांव से मांगकर लायी हुयी खटियाएं डाल दी जाती थी. दूल्हे और दूल्हन के लिये विशेष रूप से रथ का इंतजाम किया जाता था.
उन दिनों हमारे गाँवों में सांग, भजनी और मंडली बहुत लोक प्रिय थे. मनोरंजन के उन दिनों में यही साधन हुआ करते थे. कई लोगो का तो अब भी इनमें नाम चलता है. पर अब वो बात नही रही. ये सारी लोक संगीत की परंपराएं अब विलोप होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं.
उन दिनों मंडली में स्त्री पात्रों को भी पुरूषों द्वारा निभाया जाता था. पर हम जिस समय की बात कर रहे हैं उस समय स्त्री पात्र करने के लिए कुछ मंडली वालों ने स्त्री पात्रों के लिये लड़कियां रखनी शुरू कर दी थी. इस आकर्षण के कारण उन मंडलियों की काफी डिमांड रहती थी. शादी ब्याह में बारात के साथ यह भी रुतबे के लिए जरुरी था. जो मंडली का खर्च नही उठा सकता था वो भजन मंडली ले जाता था. और ज्यादा कुछ ना हो तो ग्रामोफोन रिकार्ड बजाने वाले को ही ले जाता था. आदरणीय सतीश सक्सेना व डा. दराल जैसे बुढे बुजुर्ग लोगो ने ऐसे ही मौको पर "काली छींट को घाघरों निजारा मारै रे" खूब सूना होगा. जो चाबी वाले ग्रामोफ़ोन से बजाया जाता था और इसका स्पीकर किसी ऊँचे से पेड़ पर लगा दिया जाता था. यानी सब अपनी अपनी हैसियत के हिसाब से बारात के मनोरंजन का इंतजाम रखते थे. उन दिनों बारात भी 3 से 5 दिन तो ठहरती ही थी. ज्यादा जिसकी जैसी श्रद्धा हो.
एक दिन, गर्मी भरी दोपहर काटने के लिये हम कुछ दोस्त लोग खेत के कुँए पर बैठ कर ताश पत्ते वाला जुआ खेल रहे थे. तभी उधर से मंडली करने वाले जा रहे थे. उसके साथ भी दो लड़कियां नाच गाने के लिए थी. वो मंडली हमारे ही गांव में जा रही थी. गरमी ज्यादा थी. उनका सामान ऊँटो पर लदा था और साथ में एक बैलों से जुता हुआ रथ भी था. छाया और पानी का इंतजाम देखकर वो आकर हमारे कुएं पर रुक गये. हमने भी उनको पानी वानी पिलवाया. उनके ऊँटो और बैलों ने भी पानी पीया. वो लोग सुस्ताने लगे और हम अपने दोस्तों के साथ अपनी ताश की अधूरी छूटी बाजी पूरी करने में लग गये.
थोडी ही देर बाद उस रथ में से दो सुंदर सी लड़कियां भी उतर के बाहर आई और उन्होंने हमारी तरफ़ एक अजीब सी नजर डालते हुये कुएं पर पानी पीकर वापस रथ में जा कर बैठ गई. हमारे ही गांव में रात को उनका प्रोग्राम था. पहले ही बता चुके हैं कि हम गांव के अति गणमान्य और सबसे ज्यादा पढे लिखे थे सो हम भी आमंत्रित थे उस जगह.
रात को हम सबसे अगली लाइन में बैठे थे बिल्कुल स्टेज के सामने. और चुंकी लड़कियां मंडली में आई थी नाचने के लिए, तो आसपास के गाँवों के लोगो की जबरदस्त भीड़ टूट पडी थी. कहीं पांव रखने की भी जगह नही मिल पा रही थी. जहां तक मुझे याद पडता है यह नेकीराम की मंडली थी जिसे गांवों में नेकीडा की मंडली कह कर बुलाया जाता था और उस समय की यह बहुत प्रसिद्ध मंडली थी. शायद महिला पात्रों को महिलाएं ही निभायें, की शुरूआत इसने ही की थी.
जैसे ही वो नर्तकियां स्टेज पर आई , चारों तरफ़ सीटियाँ बजने लगी और लोग सिक्के नोट फेंकने लगे. उस जमाने का इससे बढिया मनोरंजन नही था. सक्सेना जी व दराल साहब जैसे पुराने लोग तो इसको याद कर कर के अभी भी रोमांचित हो रहे होंगे और नए शायद महसूस कर पाये. मतलब मंडली में महिला नर्तकी का होना भी उस समय आश्चर्य था. सो भीड़ ऐसी मंडलियों में जुटती ही थी और जनता से कमाई भी तगडी होती थी.
जैसे ही नर्तकी स्टेज पर आई उसने ताऊ की तरफ़ झुक कर सलाम पेश किया. ताऊ बड़ा हैरान परेशान. फ़िर ताऊ ने सोचा की दोपहर ये अपने कुए पर पानी पीने रुकी थी सो शायद पहचान गई है अपने को. इसलिये सलाम किया होगा.
अब सारंगिये ने जैसे ही सारंगी पर गज फेरा और नर्तकी ने घुंघरू बंधे बाएँ पाँव की जो ठोकर स्टेज पर मारी तो पब्लिक वाह वाह कर उठी. सब झुमने लग गये. नर्तकी ने नृत्य के दो चार तोडे दिखाये और इतराते हुये गाना शुरू किया ...दगाबाज तोरी बतियाँ कह दूंगी ... हाय राम .. कह दूंगी .... दगाबाज.....
उधर तबलची ने तबले पर तिताला मारा और नर्तकी लहरा गई. ताऊ का कलेजा धक् धक करने लगा.... अरे ये क्या गजब कर रही है ? बड़ी दुष्ट है ये तो. ताऊ ने समझा की कुएं पर दोपहर में इसने पानी पीते समय ताऊ को ताश पती से जुआ खेलते देख लिया था..... और अब सबके सामने पोल खोल कर इज्जत ख़राब करेगी.
ताऊ को अपनी इज्जत बचाने का और कोई तरीका नही सूझा सो डर के मारे जल्दी से सौ रूपये का नोट नर्तकी को न्योछावर कर दिया....चलो...सौ का नोट गया कोई बात नही...इज्जत बची तो सब कुछ बच जायेगा.
ताऊ ने यह नोट बतौर राज को राज ही रहने देने के लिये दिया था. वर्ना उस जमाने में सौ का नोट.... अरे भाई कोई किस्मत वाला ही उसके दर्शन कर पाता था. पर ताऊ को इज्जत बडी प्यारी थी.
इधर नर्तकी ने सोचा कि ताऊ को यह गाना बहुत पसंद आया है और मालदार आसामी लग रहा है तो वह और लहरा लहरा कर गाने लग गई... दगाबाज... तेरी...बतियाँ कह दूंगी ! ताऊ ने समझा की अब तो ये सीधे सीधे ब्लेक्मेकिंग पर उतर आई है और इज्जत का बचना जरूरी है सो एक एक करके जेब के सारे नोट देने के बाद आखिर में अंगुली में पहनी सोने की अंगूठी भी रिश्वत में दे आया. पर ससुरी इज्जत को नही बचना था सो कुछ नोट और अंगूंठी से कैसे बचती? इज्जत इतनी सस्ती भी नही होती.
जब ताऊ ने इतने सारे नोट और सोने की अंगूठी भी दे दी तो नर्तकी ने समझा कि आज तो ताऊ बडा प्रसन्न हो गया है, माल पर माल लुटाये जा रहा है. लगता है गाना बहुत ही पसंद आ गया है....उधर तबलची ने फ़िर तबले पर हाथ मारा और नर्तकी ने फ़िर से आलाप लेते हुये झुमकर गाना शुरू कर दिया ..दगाबाज तोरी...बतियाँ... कह दूंगी ! अब ताऊ क्या करे ? घबरा गया बिचारा. कहीं हार्ट अटेक ना आ जाये....क्या करे अब? और उधर तो आलाप पूरे शबाब पर था ... बतिया. कह दूंगी... हाय राम ...कह दूंगी .... जी कह दूंगी !
इधर ताऊ का सारा ध्यान अपनी इज्जत बचाने पर टिका था.... ताऊ ने सोचा की शायद इसकी नजर अब मेरे गले में पडी सोने की आखिरी बची चैन पर है...अंगूठी तो पहले ही दे चुका था...नोटों से भरी जेब भी खाली हो चुकी थी..... सो इज्जत बचाने की आखिरी कोशीश में उठकर वो सोने की चैन भी उस को दे आया.
अब क्या था ? अब तो मंडली का मास्टर जो हारमोनियम बजा रहा था. वो भी जम गया वहीं पर और हारमोनियम पर झूम उठा. तबलची ने जो एक रपटता हुआ टुकडा फ़िर बजाया तो पब्लिक झूम उठी. चारों तरफ़ सीटियां ही सीटियां.... और नर्तकी बेसुध होकर गाये जा रही थी .. दगाबाज तोरी बतियाँ कह दूंगी.. ! हाय..हाय..राम बतियाँ ..कह दूंगी...दगाबाज..तोरी... तबलची उसे जरा भी सांस लेने का मौका नही देना चाहता था ...क्या पता ताऊ जैसा दिलदार आसामी फ़िर कब फ़ंसे? नर्तकी जी जान लगाकर बेसुध सी नाचे जा रही थी... पता नही अब वो ताऊ से और क्या महले दुमहल्ले लेना चाहती थी? अब तो ताऊ के शरीर पर सिर्फ़ कोरे लत्ते ही बचे थे.
इधर ताऊ बिचारा परेशान हो गया और उधर जोर शोर से बतियाँ कह देने की धमकी मिले जा रही थी. ताऊ की हालत सांप छछूंदर जैसी देखने लायक हो रही थी. आखिर कब तक धमकियां बर्दाश्त करता?
ताऊ खडा होकर जोर से चिल्ला कर बोला -- अरे इब के म्हारै प्राण लेगी ? जेब खाली कर दी , गात ( शरीर) नंगा कर दिया ! बतियाँ बता दूंगी... बतियाँ बता दूंगी.... तो ले इब तू के बतावैगी ? मैं ही बता देता हूँ की हम कुँए पै बैठ कै जुआ खेल्या करते हैं ! इब तो हो गई तेरी मर्जी पूरी ?
सीटियाँ !! सीटियाँ !!! सीटियाँ !!!!
ReplyDelete:) ताऊ एक बात तो पता चल गयी तेरी इज्ज़त बहुत महंगी है और इज्ज़त बचाने के लिए सभी प्रयत्न करता है. ... बक्त पर आजमा लेंगे.
बाकि डॉ दराल और सक्सेना जी तो पोस्ट पढते पढते सीटी पे सीटी ही मार रहे हैं...
आजमाने की जरूरत ही कहां है? पैसा और इज्जत दोनों गंवाकर ही ताऊ बना जाता है.:)
Deleteरामराम.
रही बात सक्सेना जी और डा. दराल साहब की तो, वे तो हमारे बूढे बुजुर्ग हैं तो उनकी सीटियों में अभी भी बहुत दम है.
Deleteरामराम.
बढिया है ताऊ।
ReplyDeleteआभार.
Deleteरामराम.
मतलब मंडली में महिला नर्तकी का होना भी उस समय आश्चर्य था. सो भीड़ ऐसी मंडलियों में जुटती ही थी और जनता से कमाई भी तगडी होती थी
ReplyDelete@ सही कहा ताऊ ! उस समय तो यह आश्चर्य ही था महिला नर्तकी की जगह महिला कपड़े पहन पुरुष ही महिला नर्तकी का अभिनय कर काम चलाया करते थे|
ताऊ ब्लॉग का एक शानदार नगीना है यह पोस्ट :)
हां उस जमाने की अब सिर्फ़ यादें ही रह गयी हैं, शायद भविष्य में यह पोस्ट कभी आश्चर्य के साथ पढी जायेगी.
Deleteबहुत आभार.
रामराम.
क्या बात ?क्या बात ?क्या बात ?ढोला ढोल मंजीरा बाजे रे ,काली छेंट रो घाघरो ,निजारा मारे रे .....बिंदास अंदाज़ में ताऊ का भोलापन भा गया ,नौटंकी बाई का साज़ और भाव राग भी ......न मानूँ ,न मानूँ ,न मानूं रे दगा बाज़ तो री बतिया न मानू रे ....
ReplyDeleteआभार अग्रज.
Deleteरामराम.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन खुद को बचाएँ हीट स्ट्रोक से - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआभार.
Deleteरामराम.
ऐतिहासिक पुराण कथाओं पर आधारित इस प्रकार के आयोजन हमारे गाँव में भी हुआ करते थे !
ReplyDeleteपुरुष पात्र ही स्त्रियों का रूप धरकर अभिनय करते, नाच गाने भी हुआ करते थे, तब मै बहुत छोटी थी अपने भाइयों के साथ देखने जाती सुबह के चार-चार बजे तक कार्यक्रम चलता था, पर हम लोग तो थोड़ी देर में ही वही लुढ़क जाते सुबह कोई जगा देता था या फिर घर हमें पहुँचाया जाता मेरे बाबा गाँव के बड़े थे :) उन्ही के द्वारा यह आयोजन होता ! सच कहा यह कला बिलकुल लुप्त हो गई है !
सुमन जी सही कहा आपने, ऐसा ही होता था. पर आने वाली पीढी इसे आश्चर्य के रूप में ही लेगी. लोक कलाओं की तो छोडिये, आज थियेटर भी प्राय विलुप्त हो रहा है. पहले थियेटर्स (रंगमंच) के जहां रेग्युलर शो, सिनेमा की तरह चलते थे, अब कभी कभार हो गये तो बडी बात होती है. आधुनिक टेक्नोलोजी के सामने यह सब धुल रहा है. आभार.
Deleteरामराम.
@ आदरणीय सतीश सक्सेना व डा. दराल जैसे बुढे बुजुर्ग लोगो ने ऐसे ही मौको पर "काली छींट को घाघरों निजारा मारै रे" खूब सूना होगा.
ReplyDeleteदखिये ताऊ मित्र इस बात से एतराज करेंगे :)
बुड्डा यहाँ केवल ताऊ है ....
Deleteजिसे भरोसा न हो बुला ले ताऊ को स्टेज पर और हमें ..
मगर इस ताऊ का तो सब माल भी गया और इज्ज़त भी नहीं बची ...
:)
सतीश जी,
Deleteताऊ ऐसे ही ताव दिलाते है अपने मित्रों को अपने ब्लॉग पर बुलाने के लिए :)
वे जवान है या बूढ़े है यह भी एक विवादास्पद विषय है !
सुमन जी, अब जो हकीकत है सो है, सतीश जी और डा. दराल हमारे आदरणीय बूढे बुजुर्ग हैं तो रहेंगे ही, इसमे कोई मिथ्या कथन नही है.
Deleteरामराम.
सतीश जी, कहते हैं कि संत गुरजिएफ़ 80 साल का ही पैदा हुआ था, इसी तरह हरियाणा में ताऊ जब पैदा होते हैं तब उनकी उम्र 100 साल की होती है.:)
Deleteजहां तक माल और इज्जत जाने का प्रश्न है तो ताऊ इन दोनों से ऊपर उठ चुके होते हैं.:)
रामराम.
सुमन जी, ताऊ का काम ही ताव दिलाना है, इसी से दूसरों को भी ताऊत्व की प्राप्ति होने की संभावना बढ जाती है.:)
Deleteरामराम.
धमाकेदार !!
ReplyDeleteआभार पूरण जी.
Deleteरामराम.
सोच रही हूँ सोने की चेन और अंगूठी के बारे में
ReplyDeleteताई को जब पता चला होगा तो आपका क्या हाल हुआ होगा !
मजेदार पोस्ट है :)
हां यह भी बडी दुख भरी दास्तां है जो ताई को लठ्ठ हस्तांतरण से जुडी हुई है, कभी आगे की पोस्ट में इसका भी खुलासा होगा.:)
Deleteरामराम.
@ भारत खेती प्रधान देश था (अब कौन सा है? भगवान जाने),
ReplyDeleteअब क्रिकेट प्रधान है !
सट्टा प्रधान देश है जी,
Deleteशेयर मार्केट, कमोडिटी, आईपीएल या फिर विश्व में कहीं भी चल रहा हो लाइव क्रिकेट मैच, आड़तों में सरसों आते ही,सरकार बनते ही, सरकार गिरते ही, ..........
हर तरफ सट्टा है जी....
तोलिया, गमछे, रुमाल, मोबाइल फोन, इन्टरनेटइस खेल के औजार हैं - साध्य और साधन सब पैसा है जी..
जी सही कह रहे आप !
Deleteसुमन जी, दीपक बाबाजी, आप दोनों ही सही कह रहे हैं पर हमारी राय यह है कि भारत अब खेती प्रधान छोडकर सब कूछ प्रधान देश है. यहां कुछ भी हो सकता है. यहां कोयला खाया जा सकता है, चारा खाया जा सकता है, घोटाले खाये जा सकते हैं.
Deleteरामराम.
ज़ोरदार
ReplyDeleteआभार प्रवीण जी.
Deleteरामराम.
@ आदरणीय सतीश सक्सेना व डा. दराल जैसे बुढे बुजुर्ग लोगो ,,
ReplyDeleteओये...
ओये.....
बुड्ढा होगा ताऊ ...
हा हा हा....ताउ तो पैदा ही 100 साल का हुआ था पर आप दोनों ही हमारे बडे बुजुर्ग हैं तो आप दोनों अपनी उम्र खुद तय करलें आदरणीय.:)
Deleteरामराम.
मस्त पोस्ट पढ़कर आनंद आ गया,,,
ReplyDeleteRecent post: जनता सबक सिखायेगी...
आभार धीरेंद्र सिंह जी.
Deleteरामराम.
:))
ReplyDeleteताऊ जी..... इसे कहते हैं...चोर की दाढ़ी में तिनका...
ग़लत काम करने पर दिल तो डरेगा ही ना...!
बढ़िया उदाहरण दिया आपने!
~सादर!!!
ताऊ को दाढी है ही नही बस तिनके ही तिनके हैं.:)
Deleteरामराम.
थोड़ी देर से क्या आये , यहाँ तो सारी ज़वानी लुट गई। :)
ReplyDeleteइसीलिये कहते हैं ना कि सोते की घोडी भैंस का पाडा ही जनती है.:)
Deleteरामारम.
ReplyDeleteभजनियों की घणी याद दिला दी ताऊ। पर म्हारे ज़माने में तै सांग हो या भजनी , छोरे ही छोरियों के कपडे पहन कूदा करते थे।
सही कह रहे हैं आप, पर हमारे क्षेत्र में एक बहुत ही प्रसिद्ध सांग मंडली थी नेकीराम की, उसमे सबसे पहले दो लडकियां काम करने लगी थी. उसकी मंडली जहां भी जाती थी उसमें भीड टूटी पडती थी.
Deleteएक बार दिन में ही हम सारी स्कूल के बच्चे तडी मार कर, पास के गांव में उसकी मंडली का मजा लेने चले गये थे. हैड मास्टर साहब सारे स्कूल अध्यापकों के साथ वहां पहूंच गये और स्कूल में लाकर सबकी जो पूजा पाठ की वो आज तक याद है.:)
रामराम
ReplyDelete.रोचक प्रस्तुति .आभार . बाबूजी शुभ स्वप्न किसी से कहियो मत ...[..एक लघु कथा ] साथ ही जानिए संपत्ति के अधिकार का इतिहास संपत्ति का अधिकार -3महिलाओं के लिए अनोखी शुरुआत आज ही जुड़ेंWOMAN ABOUT MAN
आभार.
Deleteरामराम
मस्ती भरी. मजा आ गया.
ReplyDeleteमस्ती भरी. मजा आ गया.
ReplyDeleteआभार जी.
Deleteरामराम.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज बृहस्पतिवार (22-05-2013) के झुलस रही धरा ( चर्चा - १२५३ ) में मयंक का कोना पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार शाश्त्री जी.
Deleteरामराम.
आभार श्रीराम जी.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत रोचक लेख। आनंद आ गया। मेरे ब्लॉग पर आप सादर आमंत्रित हैं। पसंद आनेपर शामिल होकर अपना स्नेह अवश्य दें। सादर
ReplyDeleteआपको आनंद आया, मेहनत सफ़ल हुयी.
Deleteरामराम.
हा हा हा.. मजा आ गया....
ReplyDeleteराम -राम ताऊ
ReplyDeleteहा हा हा हा ........बहुत सुन्दर रोचक वर्णन
बचपन में पौराणिक कथाओं पर स्वांग हमने भी देखे हैं अपने गाँव में
बहुत आभार आपका.
Deleteरामराम.
nice.आभार . हम हिंदी चिट्ठाकार हैं.
ReplyDeleteBHARTIY NARI .
बड़ा ही रोचक किस्सा है ...अंत पढ़कर तो बड़ी हँसी आई!
ReplyDeleteलेकिन यह अंत नहीं लगता... अब आगे की कहानी जननी होगी वह यकीनन और मज़ेदार होगी.[क्या हुआ होगा जब ताई को इस घटना की खबर लगी होगी !]
@जाननी ..[त्रुटि सुधार.]
ReplyDeleteहरियाणा का सारल्य /बिंदास भाव दोनों साथ साथ लिए है यह रचना .
ReplyDeleteआभार अग्रज.
Deleteरामराम.
यानि लड़कियां हमेशा से आकर्षण का केंद्र रही हैं पुरुषों के लिए .....इज्ज़त बचाने के लिए कोशिश तो बहुत की पर .... रोचक वर्णन
ReplyDeleteलडका और लडकी ये तो दोनों विपरीत ध्रुव हैं तो आकर्षण प्रति आकर्षण सहज रूप से होता है, पहले के समय में सामाजिक वर्जनाएं थी इस वजह से आकर्षण कुछ ज्यादा था. आज के समय में वर्जनाएं समाप्त होती जा रही हैं तो यह आकर्षण भी अब कुतुहल का विषय नही रहा.
Deleteरही इज्जत बचाने की बात तो ताऊ की इज्जत ही कहां है? वह तो जब घर से बाहर निकलता है तब अपनी अक्ल और इज्जत दोनों घर में ही रख आता है ताई के पास और गलती से घर रखना भूल जाये तो अपनी जेब में रख लेता है.:)
रामराम
मजा आगया पढ़कर. गाँव में ऐसे प्रोग्राम देखते थे.उसकी याद ताजा हो गई . लेकिन ताऊ ये बताओ कि ताई को प्रोग्राम देखने नहीं ले गये ?
ReplyDeleteतालियाँ .....मज़ा आ गया ...राम राम
ReplyDeleteहा हा हा हा हा हा हा हा हा इज्जत बचाने के चक्कर में ताऊ लुटता गया ..हो हो हो
ReplyDeleteaur ib aisa ho to kya kraoge?
ReplyDeleteuste phle bera paaye deoge ya masati mar ke gana sinke khosk aoge.
bhut mast aur rocak lgi.