अमन चैन
चारों तरफ़ भय, है छाया हुआ
खो गया सब अमन चैन
सन्नाटा भी थर्राया हुआ
मर गई इन्सानियत
टुटता नहीं ये भ्रम-जाल
ईमान अब बोराया हुआ
झील पे बगुले, व्योम में बाज
सब हैं सहमें दुबके
सूरज भी जैसे पथराया हुआ
(इस रचना के दुरूस्तीकरण के लिये सुश्री सीमा गुप्ता का हार्दिक आभार!)
चारों तरफ़ भय, है छाया हुआ
खो गया सब अमन चैन
सन्नाटा भी थर्राया हुआ
मर गई इन्सानियत
टुटता नहीं ये भ्रम-जाल
ईमान अब बोराया हुआ
झील पे बगुले, व्योम में बाज
सब हैं सहमें दुबके
सूरज भी जैसे पथराया हुआ
(इस रचना के दुरूस्तीकरण के लिये सुश्री सीमा गुप्ता का हार्दिक आभार!)
सन्नाटा संकेत है होगा अब बदलाव।
ReplyDeleteकदम कलम जब साथ हों न होगा भटकाव।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत सामयिक!
ReplyDelete‘‘मानवता मर गयी विश्व में, सूरज भी पथराया है।
ReplyDeleteडोल गये ईमान, धर्म अब, सारा जग बौराया है।।’’
सीमा जी का धन्यवाद,
ताऊ जी का आभार।
घणी राम-राम।
बधाई सुश्री सीमा गुप्ताजी को सुंदर रचना के लिए .
ReplyDeleteझील पे बगुले, व्योम में बाज
ReplyDeleteसब हैं सहमें दुबके
जाएँ तो जाएँ कहाँ ? सच है !
वाह वाह बहुत सटीक और सामयिक रचना,
ReplyDeleteझील पे बगुले, व्योम में बाज
ReplyDeleteसब हैं सहमें दुबके
bahut umda rachana
ताउ बहुत बढिया रचना लिखी है आज तो. बिल्कुल हालात ऐसे ही हैं.
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता. बधाई
ReplyDeleteचारों तरफ़ भय, है छाया हुआ
ReplyDeleteखो गया सब अमन चैन
" ताऊ जी बहुत सत्य और सामयिक भाव प्रस्तुत किये हैं आपने...हर तरफ ऐसा ही माहोल है .."
regards
झील पे बगुले, व्योम में बाज
ReplyDeleteसब हैं सहमें दुबके
सूरज भी जैसे पथराया हुआ
kuch satya hai ye,bahut khub.
ये माना निहायत बुरी है यह दुनिया
ReplyDeleteहमारी नहीं आपकी है यह दुनिया !
सत्य को दर्शाती इस रचना के लिए सुश्री सीमा जी और आपका धन्यवाद.......
ReplyDeleteसच और सच,सिर्फ़ सच्।
ReplyDeleteलगता नहीं है ये वही ताऊ है..
ReplyDeleteभय पसरा है - जागृति का जाम्बवन्त चाहिये जो बताये कि भय की जड़ें नहीं होतीं।
ReplyDeleteनया जीवन गहन अंधकार में ही फूटता है....
ReplyDelete"वो सुबह जरूर आयेगी सुबह का इंतज़ार कर" बड़ी सुन्दर रचना. आभार.
ReplyDeleteताऊ जी राम राम.... सच्चाईभरी रचना है
ReplyDeleteगहरी बात ताऊ.............बहुत खूब
ReplyDeleteसब हैं सहमें दुबके
ReplyDeleteसूरज भी जैसे पथराया हुआ
नर-नारी सब व्याकुल हुए है
कौन सा ये संकट आया हुआ है
जो बोया था बीज कभी
आज वो पेड़ बन लहराया हुआ है
आशा और आस्था तो यही है कि सुबह होने के पहले रात का अंधेरा बहुत बढ जाता है।
ReplyDeleteचंद शब्दों से आज की स्थिति को गहराई से बयान किया है आपने.. आभार
ReplyDeleteप्रकृति के माध्यम से भयाक्रांत समाज का सही चित्रण।
ReplyDeleteसब हैं सहमें दुबके
ReplyDeleteसूरज भी जैसे पथराया हुआ
गंभीर रचना.सामयिक चिंतन लिए हुए सफल और सार्थक.
सच ही है..जाएँ तो जाएँ कहाँ?यही दुनिया है..
वाह बहुत उम्दा।
ReplyDeleteचारों तरफ़ भय, है छाया हुआ
ReplyDeleteखो गया सब अमन चैन सन्नाटा भी थर्राया हुआ मर गई इन्सानियत टुटता नहीं ये भ्रम-जाल ईमान अब बोराया हुआ झील पे बगुले, व्योम में बाज सब हैं सहमें दुबके
सूरज भी जैसे पथराया हुआ
बहुत ही सटीक लिखा है आपने सीमा जी आभार ताऊ का धन्यवाद आप सभी का
bahut sahi likha hai aapne ....tareef kya karun
ReplyDeleteमेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
अच्छी कविता ।
ReplyDeleteझील पे बगुले, व्योम में बाज
ReplyDeleteसब हैं सहमें दुबकेबहुत सुन्दर! एक पुराना फिल्मी गीत याद आ गया -
अंधियारा गहराया, सूनापन घिर आया,
घबराया मन मेरा, चरणों में आया !
चुभती रचना...अलग कुछ अलग-अलग प्रतिकों का बढ़िया इस्तेमाल
ReplyDeleteसीमा जी को बधाई...वक्त को चिन्हित करती कविता..ताऊ जी को भी इस प्रस्तुति हेतु अनेक बधाई...
ReplyDelete